आयुनिर्णय की पृष्ठभूमि
आयुनिर्णय की पृष्ठभूमि

आयुनिर्णय की पृष्ठभूमि  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 6000 | अप्रैल 2006

आयुनिर्णय की पृष्ठभूमि’ प्रो. शुकदेव चतुर्वेदी आयु-निर्णय: भारतीय ज्योतिष में ‘आयुनिर्णय’ को आत्मतत्व एवं जीवन के घटनाचक्र के ज्ञान को शरीर माना गया है।

जैसे आत्मा के बिना शरीर अनुपयोगी एवं व्यर्थ होता है - ठीक उसी प्रकार आयु के ज्ञान के बिना जीवन के घटनाचक्र का ज्ञान अनुपयोगी एवं व्यर्थ है। वस्तुतः जब तक आयु है, तभी तक जीवन की सत्ता है और तभी तक जीवन के घटनाचक्र में गतिशीलता है।

आयु की समाप्ति के साथ ही जीवन एवं उसका घटनाचक्र दोनों ही स्तब्ध हो जाते हैं और अपने पूर्ण-विराम पर पहुंच जाते हैं। जीवन के घटनाक्रम की जानकारी में आयु की इस सापेक्षता को ध्यान में रखकर हमारे आचार्यों ने फलादेश करने से पहले आयु की भलीभांति परीक्षा करने का निर्देश दिया है।

‘‘आयुः पूर्वं परीक्षेत पश्चाल्लक्षण् ामादिशेत्।

अनायुषां तु मत्र्यानां लक्षणैः किं प्रयोजनम्।।’’

प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए जीव को जितना समय मिलता है वह उसकी आयु कहलाती है। यह समय जन्म से लेकर मृत्यु तक की कालावधि होती है और वह प्रारब्ध कर्मों के प्रभाववश कभी छोटी तथा कभी बड़ी होती रहती है। जीवन एवं मृत्यु एक गूढ़ पहेली या ऐसी जटिल गुत्थी हैं, जिसका समाधान आज तक ज्ञान एवं विज्ञान की किसी विद्या द्वारा नहीं हो पाया है।

चाहे धीर एवं गंभीर चिंतन करने वाले दार्शनिक हों या प्रयोग एवं प्रविधि के विशेषज्ञ, वैज्ञानिक हों अथवा अरबों-खरबों डालर खर्च कर मेडीकल विज्ञान में शोध एवं विकास करने वाले चिकित्सा शास्त्री हों- सभी जीवन एवं मृत्यु के रहस्य के सामने विस्मित, स्तब्ध एवं किंकर्तव्यविमूढ़ता के भाव से खड़े दिखलाई पड़ते हैं।

इस विषय में एक नोबल पुरस्कार विजेता जैनिटिक इंजीनियर का कहना है कि - ‘‘रोग की चिकित्सा तो किसी न किसी प्रकार से संभव है किंतु मृत्यु की चिकित्सा को छोड़िए उसका पूर्वानुमान करना ही टेढ़ी खीर है।’’ यह टेढ़ी खीर तब है जब भारतीय चिंतनधारा के दो प्रमुख वादों-कर्मवाद एवं पुनर्जन्मवाद को अस्वीकार कर दिया जाता है। यदि इन दोनों को स्वीकार कर लिया जाए तो जीवन-मृत्यु के रहस्य को जाना एवं पहचाना जा सकता है।

यही कारण है कि वैदिक दर्शन के उक्त दोनों वादों और उनके सिद्धांतों के आधार पर ज्योतिष शास्त्र के प्रणेता पराशर एवं जैमिनी जैसे ऋषियों तथा मय यवन, मणित्थ, शक्ति, जीवशर्मा, सत्याचार्य, वराहमिहिर एवं मंत्रेश्वर आदि आचार्यों ने आयुनिर्णय के आधारभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन कर जीवन एवं मृत्यु के रहस्य को अनावृत करने का सार्थक प्रयास किया है।

भारतीय ज्योतिष शास्त्र के मनीषियों का कहना है कि हमें जन्मकाल का ज्ञान होता है। यदि किसी प्रकार मृत्युकाल का ज्ञान हो जाए तो आयु का ठीक-ठीक प्रकार से ज्ञान/ निर्धारण हो सकता है। एतदर्थ हमारे ऋषियों एवं आचार्यों ने योग एवं दशा इन दो प्रविधियों का विकास किया। ज्योतिष शास्त्र में आयु का निर्णय योग एवं दशा-इन दो के आधार पर किया जाता है। विविध योगों के द्वारा निर्णीत आयु को योगायु तथा मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा के आधार पर निर्णीत आयु को दशायु कहते हैं।

योगायु योगायु का निर्णय मुख्यतया निम्नलिखित छः3 प्रकार के योगों से होता है।

1. सद्योरिष्ट योग,

2. बालारिष्ट योग,

3. अल्पायु योग,

4. मध्यमायु योग,

5. दीर्घायु योग,

6. अमितायु योग

इन छः प्रकार के योगों में से अल्पायु, मध्यमायु एवं दीर्घायु-ये तीनों योग आयु का निर्णय करने के लिए मारकेश ग्रहों की दशा की सापेक्षता रखते हैं जबकि सद्योरिष्ट, बालारिष्ट एवं अमितायु योग मारकेश ग्रहों की दशा की अपेक्षा नहीं रखते क्योंकि सद्योरिष्ट एवं बालारिष्ट योगों में मृत्युकाल का निर्णय गोचर के अनुसार किया जाता है।

अमितायु योग म ंे आयु का विचार ही नहीं किया जाता क्योंकि इस योग में ‘‘जीवेम शरदः शतम्’’ इस जिजीविषा की पूर्ति हो जाती है। यही कारण है कि अधिकतम आचार्यों ने 12 वर्षों तक आयु का निर्णय करने का निषेध किया है।4 अल्पायु, मध्यमायु एवं दीर्घायु योगों में आयु की न्यूनतम एवं अधिकतम अवधियों में काफी अंतर रहता है। यथा-अल्पायु योग में आयु की अवधि 13 वर्ष से 32 वर्ष तक, मध्यमायु में 33 वर्ष से 65 वर्ष तक और दीर्घायु योग में अवधि 66 वर्ष से 100 वर्ष तक होती है। आयु की अवधि में 20 से 35 वर्ष का अंतर होने के कारण आयु का स्पष्टीकरण तथा मारकेश ग्रह की दशा के आधार पर निर्धारण किया जाता है।

आयु का स्पष्टीकरण: अल्पायु आदि योगों से मनुष्य की आयु की स्थूल जानकारी मिलने के कारण महर्षि पराशर एवं उनके बाद में मय, यवन, मणित्थ, शक्ति, जीवशर्मा, सत्याचार्य, वराहमिहिर एवं कल्याण वर्मा आदि आचार्यों ने सूक्ष्मता के लिए आयु का स्पष्टीकरण करने की अनेक विधियों का प्रतिपादन एवं उपयोग किया है जिनमें प्रमुख हैं -

1. अंशायु,

2. निसर्गायु

3. पिंडायु एवं

4. लग्नायु ।

इन रीतियों में से किस व्यक्ति की आयु का स्पष्टीकरण किस रीति से किया जाए? इस प्रश्न का समाधान करते हुए महर्षि पराशर ने बतलाया है कि - ‘‘जातक की जन्म कुंडली में लग्नेश, चंद्रमा एवं सूर्य इन तीनों में यदि लग्नेश बली हो तो अंशायु द्वारा, यदि चंद्रमा बली हो तो निसर्गायु द्वारा और यदि सूर्य बली हो तो पिंडायु की रीति से आयु का स्पष्टीकरण करना चाहिए।

यदि इन तीनों में दो का बल समान हो तो दोनों का आयुर्दाय निकालकर आधा कर लेना चाहिए और यदि इन तीनों का बल समान हो तो तीनों रीतियों से आयुर्दाय निकाल कर उसके योग का तृतीयांश कर लेना चाहिए।6 प्राचीन आचार्यों में केवल वृहत्पाराशर होराशास्त्र में योगायु का निर्णय निम्नलिखित सात प्रकार के योगों से किया जाता है।

1. बालारिष्ट योग,

2. योगारिष्ट,

3. अल्पायु योग,

4. मध्यमायु योग,

5. दीर्घायु योग,

6. दिव्यायु योग,

7. अमितायु योग

बालारिष्ट योग में जातक की अधिकतम आयु 8 वर्ष,

योगारिष्ट में अधिकतम आयु 20 वर्ष,

अल्पायु योग में अधिकतम आयु 30 वर्ष,

मध्यमायु योग में अधिकतम आयु 64 वर्ष,

दीर्घायु योग में अधिकतम आयु 100 वर्ष,

दिव्यायु योग में अधिकतम आयु 1000 वर्ष और

अमितायु योग में अधिकतम आयु की कोई सीमा नहीं बतलायी गयी।

समस्त जातक ग्रंथों के परिप्रेक्ष्य में व्यावहारिक एवं सामयिक दृष्टि से विचार किया जाए तो बालारिष्ट एवं योगारिष्ट के स्थान पर सधोरिष्ट एवं बालारिष्ट को आधार मानना बहुसम्मत पक्ष है क्योंकि होरा शास्त्र के आचार्यों ने प्रायः ऐसा ही वर्गीकरण किया है। इ

सी प्रकार दिव्यायु एवं अमितायु योग जो अपवाद योग हैं को एक ही वर्ग में रखना व्यावहारिक है क्योंकि जन-जीवन में इनका बहुधा उपयोग नहीं हो पाता। अतः समसामयिक दृष्टि से योगों का उक्त छः वर्गों में वर्गीकरण करना अधिक व्यावहारिक है। इस वर्गीकरण में सद्योरिष्ट योग में जातक की अधिकतम आयु 1 वर्ष, बालारिष्ट योग में अधिकतम आयु 12 वर्ष, अल्पायु योग में अधिकतम आयु 32 वर्ष, मध्यमायु योग में अधिकतम आयु 64 वर्ष, दीर्घायु योग में अधिकतम आयु 100 वर्ष तथा अमितायु योग में अधिकतम आयु की सीमा निर्धारित नहीं है।

इस योग में आयु की न्यूनतम सीमा 100 वर्ष मानी जा सकती है। सत्याचार्य ऐसे विद्वान हैं जिन्होंने आयुदार्य के स्पष्टीकरण के लिए केवल लग्नायु की रीति को ही प्रामाणिक माना है।

आचार्य वराहमिहिर एवं कल्याण वर्मा सत्याचार्य के मत के पक्षधर लगते हैं।

एकरूपता ही प्रमाण है आयु-निर्णय के प्रसंग में विविध योगों एवं स्पष्टीकरण की रीति से निर्णीत आयु में एकरूपता होने पर उसे प्रामाण् िाक माना जाता है। यदि योगों के द्व ारा और स्पष्टीकरण के द्वारा निर्णीत आयु के मान में एकरूपता न हो तो मारकेश ग्रहों की दशा के आधार पर आयु का निर्णय करना चाहिए।

इस प्रकार योग एवं स्पष्टीकरण से मृत्यु का संभावना काल और मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा से मृत्युकाल का निर्धारण होता है। आयु का निर्णय करते समय यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए कि यहां संवाद अर्थात एकरूपता को ही प्रमाण माना जाता है। तात्पर्य यह है कि विविध रीतियों से प्राप्त आयु के परिण् ााम में एकरूपता ही उसे प्रामाणिक सिद्ध करती है।

मृत्यु का ज्ञान एक रहस्य या गूढ़ पहेली है जिसका हल खोजने के लिए जैमिनी एवं पराशर जैसे ऋषियों ने तथा मय, यवन, मणित्थ, शक्ति, जीवशर्मा, सत्याचार्य, वराहमिहिर, कल्याण वर्मा एवं मंत्रेश्वर जसै े मनीषी आचार्या ंे न े अनके उपयागे ी एवं सुमान्य रीतियों का आविष्कार एवं विकास किया है। इन रीतियों की विविधता के कारण कभी-कभी परिण् ााम में विविधता दिखलाई पड़ती है। ऐसी स्थिति में यदि एकरूपता संभव न हो तो बहुसम्मत पक्ष को ही प्रामाण् िाक मानना चाहिए।

आयुनिर्णय की दार्शनिक पृष्ठभूमि योगायु एवं अंशायु आदि के स्पष्टीकरण का आधार जन्मकालीन ग्रह स्थिति होती है जो जन्मांतरों के संचित कर्मों के फल की सूचक होती है। ज्योतिष शास्त्र में संचित प्रारब्ध एवं क्रियमाण कर्मों के फल को जानने के लिए तीन पद्धतियां विकसित की गयी हैं जिन्हें योग, दशा एवं गोचर कहते हैं।

इस शास्त्र में संचित कर्मों के फल की जानकारी जन्मकालीन ग्रह स्थिति या ग्रह योगों के द्वारा की जाती है जबकि प्रारब्ध कर्मों का फल ग्रहदशा द्वारा तथा क्रियमाण कर्मों का फल गोचर द्वारा किया जाता है। जन्मांतरों में किये गये विविध कर्मों के संकलित भंडार को संचित कहते हैं। कर्मों की विविधता के कारण संचित के फलों में विविधता होती है और इसी विविधता के कारण समस्त संचित कर्मों के फलों को एक साथ भोगा नहीं जा सकता। क्योंकि कर्मों की विविधता के परिणामस्वरूप मिलने वाले फल भी परस्पर विरोधी होते हैं अतः इनको एक के बाद एक के क्रम से भोगना पड़ता है।

वर्तमान जीवन में हमको संचित कर्मों में से जितने कर्मों का फल भोगना है; केवल उतने ही कर्मों के फल को प्रारब्ध कहते हैं। इन प्रारब्ध कर्मों के फल का ज्ञान दशा के द्वारा होता है। इस जीवन में जो कर्म हम कर रहे हैं या जिन कर्मों को भविष्य में किया जाएगा वे सब क्रियमाण कर्म कहलाते हैं और उनके फल का विचार गोचर की रीति से किया जाता है। आयुर्दाय के प्रसंग में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि योगों के द्वारा निर्णीत आयु में तथा अंशायु आदि के द्वारा स्पष्टीकरण के परिणाम में एकरूपता क्यों नहीं होती जबकि आयु निर्णय में एकरूपता को प्रमाण माना जाता है।

इसका कारण यह है कि योगायु एवं अंशायु आदि का आधार संचित कर्म हैं क्योंकि इन दोनों का विचार जन्मकालीन ग्रह स्थिति के आधार पर होता है जो संचित कर्म की सूचक होती है। चूंकि संचित कर्म परस्पर विरोधी होते हैं इसलिए योगायु एवं अश्ं ााय ु आदि क े परिणामा ंे म ंे एकरूपता नहीं होती। जैसे काली मिट्टी से काला घड़ा, लाल मिट्टी से लाल घड़ा, पीली मिट्टी से पीला घड़ा या सफेद धागों से सफेद कपड़ा और रंगीन धागों से रंगीन कपड़ा बनता है उसी प्रकार संचित कर्मों की विविधता के कारण योगायु एवं अंशायु आदि के परिणामों में स्वाभाविक रूप से विविधता होती है।

मनुष्य की आयु संचित कर्मों की अपेक्षा प्रारब्ध कर्मों पर ज्यादा आधारित होती है। क्योंकि प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने की समयावधि को आयु कहते हैं अतः उसका विचार एवं निर्णय मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा द्वारा किया जाता है। इस प्रकार निर्णीत आयु को दशायु कहते हैं। दशायु के बारे में विचार करने से पूर्व इसकी पूर्वोक्त योगों के साथ सापेक्षता एवं निरपेक्षता के बारे में कुछेक महत्वपूर्ण बातों पर विचार कर लेना आवश्यक है।

पहले कहा जा चुका है कि सद्योरिष्ट, बालारिष्ट एवं अमितायु योग मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा की सापेक्षता नहीं रखते। वस्तुतः सद्योरिष्ट एवं बालारिष्ट ये दोनों योग ऐसे हैं जो न केवल जातक के पूर्वार्जित कर्मों के फल की सूचना देते हैं अपितु वे उनके माता-पिता के द्वारा किये गये अनुचित कर्मों की भी सूचना देते हैं।

इसलिए इन योगों का विचार जन्मकुंडली के साथ-साथ आधान कुंडली से भी किया जाता है। किसी बालक की जन्म के बाद तुरंत या बचपन में मृत्यु का जितना महत्वपूर्ण कारण उसके पूर्वार्जित कर्मों का फल है उतना ही महत्वपूर्ण कारण उसके माता-पिता का अनुचित आचरण है। मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा माता-पिता के अनुचित आचरण पर पर्याप्त प्रकाश नहीं डालती इसलिए सद्योरिष्ट एवं बालारिष्ट योगों में ग्रह दशा की सापेक्षता नहीं होती।

अमितायु योग में जीवन की न्यूनतम कालावधि एक सौ वर्ष से अधिक होती है जो हमारी सौ साल तक जिएं जैसी जिजीविषा को संतुष्ट कर देती है। इस प्रकार इस योग के प्रभाववश जिजीविषा की पूर्ति एवं संतुष्टि हो जाने के कारण इस योग में भी मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा का विचार नहीं किया जाता। अल्पायु, मध्यायु एवं दीर्घायु योगों में से कतिपय योग ऐसे भी होते हैं जिनमंे मृत्यु के सम्भावित वर्ष का उल्लेख रहता है किंतु अधिकांश योगों में केवल इतना बतलाया जाता है कि अमुक योग में मनुष्य की आयु मध्य या दीर्घ होगी।

यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि अल्पायु, मध्यायु एवं दीर्घायु की जो न्यूनतम एवं अधिकतम अवधियां बतलायी गयी हैं उनमें बीसों वर्षों का अंतर होता है, अतः इन योगों में उत्पन्न व्यक्तियों की आयु या मृत्यु की जानकारी के लिए मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा का विचार अनिवार्य भी है और अपरिहार्य भी।

दशायु: होराग्रंथों में प्रतिपादित योगों के द्वारा आयु की स्थूल जानकारी करने के बाद सूक्ष्म रूप से उसका ज्ञान करने के लिए मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा का आश्रय लिया जाता है। मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा द्वारा निर्णीत आयु को दशायु कहते हैं। दशा द्वारा आयु का निर्णय करने से पहले योगों द्वारा अल्पायु, मध्यायु एवं दीर्घायु का विधिवत निश्चय कर लेना चाहिए और फिर मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा के आघार पर मृत्यु का पूर्वानुमान करना चाहिए।

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