रक्तचाप : आधुनिकता की देन
रक्तचाप : आधुनिकता की देन

रक्तचाप : आधुनिकता की देन  

व्यूस : 6760 | जुलाई 2009
रक्तचाप रू आधुनिकता की देन ऐसा नहीं है कि लोगों को रक्तचाप इस युग में ही हो रहा है। इसका वर्णन सदियों पुराने आयुर्वेद में भी मिलता है। लेकिन वर्तमान समय में यह रोग आम हो गया है। रक्तचाप उन लोगों को अधिक होता है, जो प्रायः शरीर और मन दोनों को पर्याप्त आराम नहीं देते तथा मशीन की भांति शरीर का उपयोग करते हैं। आज के युग में प्रायः देखने को मिलता है, कि मनुष्य अनेक प्रकार की मानसिक चिंताओं और परेशानियों से घिरा रहता है। इसके साथ उसके खान-पान की आदतें एवं आचार-विचार भी ऐसे बन गये हैं, जो उसके शरीर में अतिरक्तचाप जैसे रोगों के लिए अनुकूल वातावरण पैदा कर देते हैं। देर रात तक जागते रहना, रात्रि भोजों में शामिल होना, देर रात तक टी. वी. देखना, चाय-काफी एवं अन्य मादक द्रव्यों का अधिक मात्रा में सेवन करना और मल-मूत्र आदि के स्वाभाविक वेगों को रोक कर रखना आज के युग में सामान्य होती जा रही हैं, जो तरह-तरह के रोगों को उत्पन्न करने में विशेष भूमिका निभा रही हैं। रक्तचाप क्या है: रक्त का संचार होने से जो दबाव रक्त वाहिकाओं पर पड़ता है वही रक्तचाप कहलाता है। रक्त शरीर के पोषक घटकों को सूक्ष्म कोषों तक पहुंचाता हैं। किंतु रक्त को वहन करने में हृदय और रक्तवाही संस्थान मुख्य भूमिका निभाते हैं। इन दोनों के अलावा एक और घटक है रक्तचाप। रक्त एक निश्चित दबाव से बहता है। हृदय का बायां भाग तेज संकुचित हो कर रक्त को महाधमनी में धकेलता है और रक्त वाहिनियों से हो कर आगे गतिमान होता है। इसे संकोचकालीन रक्त भार कहते हैं। दो संकुचन के बीच का काल विश्राम अथवा शिथिलन काल कहलाता है। इसमें संकुचन के दौरान आगे बढ़ा हुआ रक्त जब धमनियों के रिक्त स्थान में प्रवेश पाता है, तब धमनी की दीवार और रक्त में संघर्ष होता है और रक्त का दबाव बढ़ जाता है। अतः हृदय के दो संकुचन के बीच धमनियों में जो रक्त भार रहता है, उसे विश्रामकालीन रक्तचाप कहते हैं। रक्त और रक्त कणों के परिमाण जब उचित हों और रक्त वाहिनियों में जब कोई रुकावट नहीं हो, तब यह रक्तचाप अपने स्वाभाविक मात्रा में रहता है और जब इन परिमाणों में विकृति उत्पन्न होती है, तब रक्तचाप बढ़ता है। रक्तचाप में वृद्धि दो कारणों से होती है ः रक्त का अपेक्षाकृत गाढ़ा होना तथा धमनी की दीवारों में लचीलेपन की कमी! धमनियां रबड़ की ट्यूब की भांति लचीली होती हैं, जिनमें ऊतकों की अनेक सतहें पायी जाती हैं। जब इन ऊतकों में ठोस द्रव्य अधिक मात्रा में जमा हो जाता है, तब धमनियों की दीवारों पर रक्त का दबाव बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त रक्त अपनी सामान्य अवस्था से गाढ़ा हो जाता है। इस प्रकार धमनियों के लचीलेपन में कमी और रक्त के गाढ़े होने से रक्तचाप बढ़ जाता है। इसके अलावा किसी अन्य अंग के विकार के परिणामस्वरूप भी रक्तचाप बढ़ सकता है। बढ़ा हुआ रक्तचाप घटे हुए रक्तचाप से अधिक घातक होता है। आयुर्वेद के मूल सिद्धांतों के अनुसार रक्त वहन की क्रिया वायु द्वारा संपन्न होती है। जब वायु बढ़ जाता है, या उसकी गति दुगनी हो जाती है, तब रक्तचाप बढ़ जाता है, जिसे अतिरिक्त चाप, या उच्च रक्तचाप कहते हैं। इसके विपरीत जब वायु कम हो जाती है, तो निम्न रक्तचाप होता है। चिकित्सा: पहले रोग के कारणों को दूर करना जरूरी है। शरीर में जो प्राकृतिक वेग, अर्थात मल-मूत्र की संवेदना उत्पन्न होती है, उन्हें रोकें नहीं। हमेशा हल्काफुल्का और सुपाच्य भोजन समय पर लें। शांत स्वभाव, धैर्य आदि गुणों को अपनाएं। चिंता, क्रोध, शोक, निराशा, शीघ्रता, भय आदि से दूर रहें। आत्मसंतोष की प्रकृति को बढ़ावा दंे और आध्यात्मिकता तथा धार्मिक कार्यों में रुचि रखें। उच्च रक्तचाप के लिए आयुर्वेदिक औषधीय उपचार: अधिक से अधिक पानी पीएं। रात को लहसुन की दो फंाकें छील कर, काट कर, कांच के गिलास में पानी भर कर भीगो दें और सुबह लहसुनयुक्त पानी पीएं। प्रतिदिन सुबह हरड़ का पांच ग्राम चूर्ण पानी से लें। नीम, गिलोय, गोखरू और आंवला सम भाग में ले कर चूर्ण बना लें और दिन में तीन बार भोजन के बाद लें। सर्पगंधा वटी दो-दो गोली तीन बार लें। शंखपुष्पी का ताजा रस दिन में तीन बार पंद्रह दिन लें। दोपहर और शाम के भोजन के बाद अदरक का छह माह पुराना मुरब्बा, दस ग्राम सौंफ के उबले हुए ठंडे पानी के साथ लें। चैलाई का साग खाने से उच्च रक्तचाप ठीक हो जाता है। गेहूं की बाली का रस रोज सुबह खाली पेट लें। सर्पगंधा, आंवला, गिलोय, अर्जुन वृक्ष की छाल, असगंध सम भाग में ले कर चूर्ण बना लें और सुबह-शाम, पानी या दूध के साथ, तीन-तीन ग्राम लें। रुद्राक्ष की माला पहनें और रुद्राक्ष के चार दानों को रात में एक गिलास पानी में भिगो कर रख दें। प्रातःकाल उसी पानी को पीएं। एक माह में उच्च रक्तचाप ठीक हो जाएगा। निम्न रक्तचाप: गाजर के रस मंे शहद मिला कर पीएं। तुलसी, काली मिर्च, लौंग और इलायची की चाय बना कर पीएं। असगंध, पीपरा मूल एवं अर्जुन की छाल, तीनों का चूर्ण सुबह-शाम दूध के साथ एक-एक ग्राम लें। सेब, पपीता, अंजीर तथा आम का अधिक सेवन करें। दाल, सब्जी में लहसुन का छोंक निम्न रक्तचाप में लाभकारी है। काले चने को उबाल कर, उबले पानी में हल्का नमक और काली मिर्च मिला कर पीएं। दूध में गुड़ मिला कर खाएं। खजूर और छुआरे को दूध में उबाल कर लेने से निम्न रक्तचाप में लाभ होता है। योगाभ्यास, व्यायाम, प्राणायाम एवं सर्वांगासन लाभकारी हैं। तेल की मालिश शरीर में रक्तचाप को सामान्य रखती है। उच्च और निम्न दोंनो में तेल की मालिश लाभकारी है। रक्तचाप के ज्योतिषीय कारण: ज्योतिषीय दृष्टि से काल पुरुष की कुंडली में चतुर्थ, पंचम, छठा भाव रक्त संवहन तंत्र के कारक हंै। चतुर्थ भाव हृदय, धमनियों, पंचम भाव यकृत, पाचन, अग्नाशय और छठा भाव पेट, बड़ी आंत, गुर्दे का नेतृत्व करते हैं और इन भावों के कारक क्रमशः चंद्र, बृहस्पति और मंगल हैं। सूर्य हृदय की धमनियों, चंद्र-बृहस्पति धमनियों में लचीलापन और मंगल रक्त में ऊर्जा और दबाव के कारक हैं। रक्त का संचार हृदय और धमनियों से पूरे शरीर में एक निश्चित दबाव से होता है। इसलिए चतुर्थ, पंचम, छठा भाव, लग्न, इनके स्वामी, सूर्य, चंद्र, गुरु, मंगल रक्तचाप को घटाने-बढ़ाने में विशेष भूमिका निभाते हंै। राहु इन के अच्छे-बुरे प्रभाव को गति प्रदान करता है। इसलिए इन सभी की कुंडली में दुष्प्रभाव में रहने से और ग्रहों की दशा-अंर्तदशा में रक्तचाप से जातक को पीड़ित होना पड़ता है। विभिन्न लग्नों में रक्तचाप के ज्योतिषीय कारण: मेष लग्न: राहु, सूर्य, चंद्र चतुर्थ भाव में, बुध पंचम भाव और मंगल छठे भाव में हो,तो रक्तचाप से व्यक्ति को समय-असमय प्रभावित होना पड़ता है। वृष लग्न: गुरु चतुर्थ स्थान में चंद्र के साथ हो, मंगल राहु से दृष्ट और त्रिक स्थानों पर हो, शुक्र अस्त हो और सूर्य पर शनि की दृष्टि हो, तो रक्तचाप से जातक को परेशानी होती है। मिथुन लग्न: मंगल-राहु लग्न में और लग्नेश अष्ट भाव में, सूर्य सप्तम में रहे और गुरु चतुर्थ या पंचम में दृष्टि लगाए, तो रक्तचाप होता है। कर्क लग्न: बुध लग्न में, गुरु चतुर्थ में, शुक्र-चंद्र अस्त हो, मंगल त्रिक स्थानो पर, शनि से युक्त या दृष्ट हो, तो रक्तचाप से जातक को पीड़ित करता है। सिंह लग्न: राहु-बुध लग्न में, चंद्र-शनि चतुर्थ में और मंगल षष्ठ भाव में गुरु के साथ रक्तचाप देता है। कन्या लग्न: बुध, शनि छठे भाव में, सूर्य पंचम में, चंद्र पंचम में अस्त स्थिति में, मंगल चतुर्थ स्थान में गुरु से दृष्ट युक्त हो, तो रक्तचाप होता है। तुला लग्न: गुरु चतुर्थ या पंचम में, सूर्य लग्न में, चंद्र और राहु दशम् भाव में, शुक्र अस्त हो, तो रक्तचाप जातकों को पीड़ा देता है। वृश्चिक लग्न: मंगल छठे भाव में राहु से युक्त हो, बुध चतुर्थ या पंचम भाव में उदय हो और शनि से युक्त हो, तो रक्तचाप से पीड़ा देता है। धनु लग्न: लग्नेश त्रिक स्थानों मंे सूर्य से अस्त हो, चंद्र और शुक्र एक दूसरे से युक्त या दृष्ट हांे, चतुर्थ भाव पर शनि या राहु की दृष्टि हो, तो रक्तचाप देता है। मकर लग्न: सूर्य, बुध लग्न में, शनि चतुर्थ स्थान पर गुरु से दृष्ट हो, चंद्र षष्ठ भाव में राहु से दृष्ट या युक्त हो और मंगल पंचम में हो, तो रक्तचाप होता है। कुंभ लग्न: गुरु, चंद्र चतुर्थ भाव में, शुक्र अस्त हो, शनि-सूर्य एक दूसरे से युक्त, या एक दूसरे से सप्तम हांे, मंगल पंचम में रहे, तो रक्तचाप होता है। मीन लग्न: सूर्य पंचम या चतुर्थ में, गुरु अस्त हो, शनि मंगल से युक्त और राहु से दृष्ट हो, तो जातक रक्तचाप से पीड़ित होता है। उपर्युक्त सभी योग चलित कुंडली के आधार पर हैं। जब इन्हीं ग्रहों से संबंधित दशा-अंतर्दशा रहे और गोचर ग्रह स्थिति प्रतिकूल हो, तो रक्तचाप से जातक को पीड़ित करता है। अगर कुंडली में सभी ग्रह स्थितियां प्रतिकूल रहें, तो रोग जीवन भर रहता है; अन्यथा संबंधित ग्रह की दशा-अंतर्दशा के समय प्रभाव देता है; इसके पूर्व या उपरांत नहीं।



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