भरत चरित्र
भरत चरित्र

भरत चरित्र  

ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’
व्यूस : 7784 | आगस्त 2015

श्री शुकदेव जी कहते हैं- राजन् ! महाराज भरत बड़े ही भगवद्भक्त थे। भगवान ऋषभदेव ने अपने संकल्पमात्र से ही उन्हें पृथ्वी की रक्षा करने के लिए नियुक्त कर दिया। उन्होंने विश्वरूप की कन्या पंचजनी से विवाह कर उसके गर्भ से सुमति, राष्ट्रभृत, सुदर्शन, आवरण और धूमकेतु पांच पुत्रों को उत्पन्न किया जो सर्वथा उन्हीं के समान थे। इस वर्ष को जिसका नाम पहले अजनाभवर्ष था, राजा भरत के समय से ही ‘‘भारतवर्ष’ कहते हैं वात्सल्य भाव से प्रजा का पालन करने लगे। यज्ञस्वरूप भगवान् की अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशु और सोम आदि यज्ञों से आराधना करते और यजमान भरत उस पुण्यरूप फल को सर्वेश्वर भगवान् वासुदेव को ही अर्पण कर देते। निष्काम भक्ति करते थे। कोई कामना उन्हें स्पर्श तक नहीं कर सकी। इस प्रकार कर्म की शुद्धि से उनका अंतःकरण शुद्ध हो गया। इस प्रकार भक्ति प्रवाह से युक्त जीवन जीते हुए एक करोड़ वर्ष निकल जाने पर राज्यभोग का प्रारब्ध क्षीण हुआ जानकर अपनी भोगी हुई वंशपरंपरागत संपत्ति को यथायोग्य पुत्रों में बांट दिया। फिर अपने राजमहल से निकलकर पुलहाश्रम (हरिहर क्षेत्र) में भगवदाराधन करने चले आए।

आज भी भगवान् श्री हरि वहां निवास करते हैं। उसके पास गण्डकी नदी प्रवाहित होती है, जो ऋषि-आश्रमों को पवित्र करती है। उसके दोनों किनारों पर चक्राकार शालग्राम-शिला प्राप्त होती है। उस पुलहाश्रम के उपवन में एकांत में अकेले ही रहकर विभिन्न उपचारों से भगवान् के आराधना करने लगे। श्री शुकदेव जी कहते हैं- राजन् मन का कुछ भरोसा नहीं। चक्रवर्ती सम्राट ने साम्राज्य, अनूकुल पत्नी, सुंदर सुकुमार सद्गुणी पुत्र तथा समस्त ऐश्वर्य को तृण के समान त्यागकर काननवास किया था; पर एक हिरण में आसक्ति जा अटकी। एक बार भरत जी गण्डकी में स्नानकर प्रणव का जप करते हुए तीन मुहूर्त तक नदी के तट पर बैठे रहे। इसी समय एक हिरणी जल पीने की इच्छा से नदी के तीर पर आयी। अभी वह जल पी ही रही थी कि सिंह के घोर गर्जना से भयातुर होकर, उसने नदी पार जाने के लिए छलांग लगा दी, गर्भ जल में गिर पड़ा। मृगी के प्राण-पखेरू निकल गए। भरत ने देखा और स्नेहवश, दयावश (दया धर्म का मूल है) उस शिशु को आश्रम पर ले आए। बच्चे को उठाने में कोई दोष नहीं था, उसकी सेवा-सुश्रूषा करके उसे स्वस्थ कर देने में भी कोई दोष नहीं था।

लेकिन वह स्वयं तो हो गए थे भगवान् के, मैं भगवान् का हूं- ऐसा मानते थे। किंतु यहां मृग शावक को उन्होंने अपना मान लिया। चाहिए तो यह था कि उसको भी भगवान् का ही मानते। उन्होंने अभिमान कर लिया कि यह मेरा बच्चा है। अब वे प्यार पूर्वक नित्य उसके पालन-पोषण, लाड़ लड़ाने और व्याघ्रादि से बचाने आदि क्रियाओं में आसक्त हो गए। जप-तप-साधन-प ूजन-आराधन सभी एक-एक कर छूटते चले गए। संसार का प्रेम भगवान् की भक्ति करने नहीं देता। राजराजेश्वर भरत की संपूर्ण क्रियाएं सोना-बैठना-जागना -हंसना-बोलना-खाना-पीना आदि मृगशावक के लिए समर्पित हो गयीं। एक दिन मृगशावक बड़ा होने पर उनको छोड़कर जंगल मंे चला गया; इस बात से भरत के हृदय में बड़ा ही संताप हुआ। भगवान् की जगह उसी का चिंतन-मनन-स्मरण तथा ध्यान करने लगे और एक दिन राजर्षि भरत का देहावसान हो गया। ‘अंत मति सो गति’ के अनुसार आत्मस्वरूप से पतित भरत को साधारण पुरूषों के समान मृग शरीर ही मिला। किंतु उनकी साधना पूरी थी, इससे उनकी पूर्व जन्म की स्मृति नष्ट नहीं हुई।

उस योनि में भी पूर्वजन्म को भगवदाराधना के प्रभाव से अपने मृग रूप होने का कारण जानकर वे अत्यंत पश्चाताप करते और कहते मैं संयमशील महानुभावों के मार्ग से पतित हो गया। इस प्रकार मृग शरीर को धारण किए हुए राजर्षि भरत के हृदय में वैराग्य भावना जागृत हो गयी और उसे छिपाये रखकर उन्होंने अपनी माता मृगी व जन्मस्थान कालांतर पर्वत को छोड़कर शांतस्वभाव मुनियों के प्रिय उसी शालग्रामतीर्थ में, जो भगवान का क्षेत्र है, पुलस्त्य और पुलह ऋषि के आश्रम पर चले आये। सूखे पत्तों का आहार करते, हरे तृण तक न छूते। कालक्रम से गण्डकी नदी के पावन जल में शरीर का आधा भाग डुबाये रखकर उस मृग शरीर को श्री वासुदेव भगवान् का ध्यान करते हुए छोड़ दिया। श्री शुकदेव जी कहते हैं - राजन् ! आडिंगरस गोत्र में आत्मज्ञानी श्रेष्ठ ब्राह्मण के पहली पत्नी से नौ पुत्र एवम् दूसरी पत्नी से एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। इन दोनों में जो पुरुष था वह परम भागवत राजर्षिशिरोमणि भरत ही थे। दूध का जला फूंक-फूंककर पीता है’’। पिता को मोह न हो जाय, अतः परमज्ञानी भरत अपने को दूसरों की दृष्टि में पागल, मूर्ख, अंधे व बहरे के समान दिखलाते।

लौकिक शिक्षा में उनकी कोई रूचि नहीं थी। सदा सजग रहने वाले कालभगवान् ने आक्रमण करके भरत जी के पिता की जीवन लीला समेट ली और उनकी छोटी भार्या गर्भ से उत्पन्न हुए दोनों बालक अपनी सौत को सौंपकर स्वयं सती होकर पतिलोक को चली गयीं। भरत जी के भाई ब्रह्मज्ञानरूप पराविद्या से सर्वथा अनभिज्ञ थे। इसलिए उन्हें भरत जी का प्रभाव भी ज्ञात नहीं था। उन्हें मानापमान का कोई विचार न था। जो कोई जो कुछ भी कहता तब वे भी उसी के अनुरूप भाषण व व्यवहार करने लगते। जीभ का जरा भी स्वाद न देखते हुए जो कुछ मिलता भगवद् अर्पण करके अमृत के समान खा लेते, कहा भी है ‘रूखा-सूखा खाय के ठंडा पानी पीव, देख परायी चूपड़ी मत ललचावै जीव।’’ उन्हें तो स्वतः सिद्ध केवल ज्ञानानंदस्वरूप आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था। धूल-धूसरित रहने के कारण उनका ब्रह्मतेज उसी प्रकार छिप गया था जिस प्रकार बादल के एक छोटे से टुकड़े के कारण सूर्य का प्रकाश विलीन हो जाता है। इनके भाई खेतों की मेंड़ बनाने, खुदाई करने आदि कार्यों में लगा देते तो उन कार्यों को भी उल्टा सीधा कर देते। ‘खनन कहें तो कूप बनावैं, मेंढ कहें तो शिखर बनावें’’।

एक दिन पके हुए खेतों की रखवाली को भरतजी को लगा दिया। चिड़ियां खेत चुगने आयीं। सभी में ईश्वर का दर्शन किया और कहने लगे- ‘‘राम जी की चिड़िया, रामजी का खेत। खाओ रे चिड़िया भर-भर पेट।। खाने वाला राम, खिलाने वाला राम, तो रोकने का क्या काम?’’ चिड़ियां खेत का संपूर्ण दाना चुग गयीं। भाइयों को बड़ा ही क्रोध आया और इन्हें घर से निकाल दिया। अब तो स्वछंद विचरण करने लगे। जो कोई कुछ दे देता आहार स्वीकार कर लेते। मांगते किसी से कुछ नहीं थे, कहा भी है- मांगत-मांगत मान घटे, प्रीति घटे नित के घर जाय। ओछे की संगत बुद्धि घटे, क्रोध घटे मन के समझाय। इनका नाम ही जड़ भरत पड़ गया। वास्तव में जीवन जीने का जो ज्ञान तत्व है वह भरत जी के चरित्र से पूर्णतया प्रकाशित होता है। भरत जी ने भोजन करना, चलना सिखाया व मानव जीवन की सार्थकता को संसार के समक्ष प्रगट किया। एक दिन स्वेच्छा से खेतों पर वीरासन लगाकर भगवान् का ध्यान कर रहे थे। रात्रि का गहन अंधकार था। डाकुओं के सरदार ने पुत्र कामना से भद्रकाली को मनुष्य की बलि देने का संकल्प किया। जो पुरूष बलि हेतु कारागर में था, दैवात, कारागार से भाग गया।

डाकू के सामंत जो शूद्र जाति से थे, चारों ओर दौड़ने लगे, परंतु उसका कहीं पता न लगा। तब भरत जी इनको दिखायी दिए; हट्टा-कट्टा शरीर, हृष्टपुष्ट लक्षणों वाले इन भरतजी को रस्सियों से बांधकर चंडिका देवी के मंदिर में ले आए। स्नानादि-भोजनादि सभी कृत्यों को पूर्ण किया, उस पुरूष पशु को नीचा सिर कराके भद्रकाली के सामने बैठा दिया। इन्हें शरीर का कोई मोह ही नहीं था, पर भगवती ऐसे भगवान् के अंश स्वरूप, आत्माराम भरतजी की बलि कैसे स्वीकार करतीं? चंडिका ने प्रगट होकर ब्रह्मर्षि कुमार की रक्षा की और उस अभिमंत्रित डाकुओं के खड्ग से ही उन सारे पापियों का संहार कर दिया। जिन्होंने भगवान् के निर्भय चरणकमलों का आश्रम ले रखा है, उन परमहंसों की रक्षा भगवान् किसी न किसी रूप में करते ही हैं, कहा भी है- ‘‘जाको राखै साईयां, मार सके नहिं कोय बाल न बांका कर सके, चाहे जग बैरी होय।’’ श्री शुकदेवजी कहते हैं- राजन् एक बार सिंधु सौवीर देश का स्वामी राजा रहूगण पालकी पर चढ़कर भगवान् कपिलदेव जी से ज्ञान प्राप्त करने गंगा सागर जा रहे थे।

होना तो यह था ज्ञान प्राप्ति एवं सत्संग हेतु पैदल जाते, कहा भी है- ‘‘संत मिलन को चलिए, तज माया अभिमान, ज्यों-ज्यों पग आगे धरै, त्यों-त्यों कोटिक यज्ञ समान।’’ परंतु राजा अभिमानी था। मार्ग में इक्षुमती नदी के किनारे जब राजा की पालकी पहुंची, तो पालकी ढोने हेतु एक कहार की आवश्यकता पड़ी। कहार की खोज करते समय दैववश ये ब्राह्मण देवता भरतजी मिल गए। वे बड़े मोटे ताजे तो थे ही, लोगों ने जबर्दस्ती पकड़कर पालकी ढोने में लगा दिया। वे द्विजवर, कोई जीव पैरों तले दब न जाय- इस डर से आगे की एक बाण पृथ्वी देखकर चलते थे। इसलिए दूसरे कहारों के साथ उनकी चाल का मेल नहीं खाता था। पालकी ठेढी-सीधी होने लगी। राजा ने पालकी उठाने वालों से कहा- अरे कहारांे ! अच्छी तरह चलो। स्वामी का यह आक्षेप युक्त वचन सुनकर कहारों ने दंड के भय से राजा से कहा-महाराज! यह हमारा प्रमाद नहीं है, यह जो नया कहार पालकी में लगाया है, इसके कारण ही पालकी ऊंची-नीची हो रही है। ऐसा सुनकर रहूगण को क्रोध आ गया। उसकी बुद्धि महापुरुषों के सेवन करने पर भी रजोगुण से व्याप्त हो गयी और ब्रह्मतेज संपन्न भष्म से आच्छादित द्विजश्रेष्ठ से व्यंग्य वचन कहने लगा।

रहूगण को राजा होने का अभिमान था, इसलिए वह अनेक प्रकार की अनाप-शनाप बातें बोल गया। मुनिवर जड़ भरत ने राजा रहूगण को यथार्थ तत्त्व का उपदेश दिया और मौन हो गए। द्विजश्रेष्ठ के अनेकों योग-ग्रंथों से समर्पित और हृदय की ग्रंथि का छेदन करने वाले उत्तम वचनों को सुना और तत्काल पालकी से उतर पड़ा। राजा मदांध था, कहा भी है- न ‘‘पश्यति जन्मान्धो, कामान्धो नैव पश्यति। न पश्यति मदोन्मत्तो, अर्थी दोषं न पश्यति।’’ राजा का दर्प चूर-चूर हो गया। कहने लगा- मैं इंद्र वज्र, यमराज दंड, महादेव के त्रिशूल तथा कुबेर आदि के अस्त्र-शस्त्रों से नहीं डरता; परंतु मैं ब्राह्मण कुल के अपमान से बहुत ही डरता हूं। इसलिए बताओं, आप कौन हैं? मुझे आपकी कोई थाह नहीं मिल रही है। दीनबंधो ! राजत्व के अभिमान से उन्मत्त होकर मैंने आप जैसे परम साधु की अवज्ञा की है। अब आप ऐसी कृपादृष्टि कीजिये, जिससे साधु-अवज्ञारूप अपराध से मैं मुक्त हो जाऊं। द्विजश्रेष्ठ ने राजा रहूगण को ज्ञान-दर्शन कराया और कहा- राजन्! विशुद्ध परमार्थ रूप, अद्वितीय तथा भीतर-बाहर के भेद से रहित परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु है। वह सर्वान्तर्वर्ती और सर्वथा निर्विकार है।

उसी का नाम भगवान् है और उसी को पंडित जन वासुदेव कहते हैं। यह राजा रहूगण और कोई नहीं वह हिरण-शावक ही था जिसके कारण राजर्षि भरत को मृग योनि प्राप्त हुई थी। भरत जी चाहते थे कि जिस मृग को मैंने अपनी गोद में पाला पोषा है, उसका कल्याण हो। मृग मरने पर राजा रहूगण बन गया था तथा भरत जी मृगयोनि को प्राप्त हुए पुनः ब्राह्मण कुल में जन्म लिया। राजा रहूगण को संपूर्ण परिचय करा दिया। सभी प्रश्नों का समाधान किया, भवाटवी का वर्णन सुनाया एवम् राजा को संपूर्ण कर्म बंधनों से मुक्त कर दिया। श्री शुकदेव जी कहते हैं उत्तरानंदन ! उन परम प्रभावशाली ब्रह्मर्षि पुत्र ने अपना अपमान करने वाले सिंधु नरेश रहूगण को भी अत्यंत करूणावश आत्मतत्व का उपदेश दिया। राजा रहूगण ने भी अंतःकरण में अविद्यावश आरोपित देहात्मबुद्धि को त्याग दिया। दीन भाव से रहूगण राजा ने उनके चरणों की वंदना की। फिर वे परिपूर्ण समुद्र के समान शांतचित्त होकर भगवान् वासुदेव का ध्यान करते पृथ्वी पर विचरण करते हुए उत्तम गति को प्राप्त हो गए।

राजा परीक्षित को भवाटवी का स्पष्टीकरण किया। राजर्षि भरत के विषय में पंडितजन ऐसा कहते हैं जैसे गरुड़ जी की होड़ कोई मक्खी नहीं कर सकती, उसी प्रकार राजर्षि महात्मा भरत के मार्ग का कोई अन्य राजा मन से भी अनुसरण नहीं कर सकता। उन्होंने पुण्यकीर्ति श्रीहरि में अनुरक्त होकर भगवान् के गोलेकधाम को प्राप्त किया। राजर्षि भरत के पवित्र गुण और कर्मों की भक्तजन भी प्रशंसा करते हैं। उनका यह चरित्र बड़ा कल्याणकारी, आयु और धन की वृद्धि करने वाला, लोक में सुयश बढ़ाने वाला और अंत में स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है। जो पुरुष इसे सुनता या सुनाता है और इसका अभिनंदन करता है, उसकी संपूर्ण कामनाएं स्वयं ही पूर्ण हो जाती हैं ऐसा गूढ़ ज्ञान देकर श्री शुकदेव जी ने वासुदेव भगवान् के श्रीचरणों में प्रणाम किया।



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