भक्तवत्सला हैं कालीघाट की देवी महाकाली डाॅ. राकेश कुमार मिश्र आदि-अनादि काल से धर्म सम्मत रहे भारतवर्ष में शक्ति की उपासना विभिन्न रूपों में की जाती रही है। इनमें शत्रु-विनाशिनी, संकटहारिणी महाकाल की अधिष्ठात्री शक्ति मां के उपास्य स्थलों में कोलकाता का कालीघाट सर्वप्रमुख हैं। अपने लौकिक अलौकिक प्रभाव के कारण न सिर्फ बंगाल वरन् पूरे जंबूद्वीप में इस स्थल की गणना महामाया काली के जाग्रत पीठ के रूप में की जाती है। प्राचीन भारतीय धार्मिक साहित्य, अभिलेखों व नवीन एवं अर्वाचीन बंगला साहित्य में मां के इस स्थल की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है। तंत्र-चूड़ामणि में जिन 52 शक्तिपीठों का वर्णन किया गया है, उनमें कालिका देवी का क्रम 51वां हैं। ऐसे बंगाल में प्रचलित 51 शक्तिपीठों में बीसवें क्रम में कालीघाट की चर्चा आयी है जो कोलकाता से 4 किमीदक्ष् िाणी भू-भाग पर विराजमान है। विवरण है कि यहां सती के दाहिने पैर की चार अंगुलियां (कहीं-कहीं पांचों) गिरी थी। यहीं कालीघाट में देवी, महाकाली के रूप में नकुलीश भैरव के साथ पूजित हैं। विवरण है कि मंदिर की अवस्थिति के पूर्व की ओर काली दंड नामक पोखरा-कुंड पहले ईट व लोहे के रेलिंग से घिरा था। देवी की अंगुली पतित होने के उपरांत कालान्तर में भक्तों द्वारा यहीं देवी मंदिर की स्थापना की गयी। महानगरी कोलकाता के इतिहास से जुड़े तथ्यों के अध्ययन-अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि इस पूरे क्षेत्र का नाम मां काली के देवालय के कारण ही कालीघाटा पड़ा जो बाद में कलकत्ता (कैलकाटा) और आज कोलकाता के नाम से जाना जाता है। यह जानकारी की बात है कि सरस्वती और यमुना नामक दो नदियां कालीघाट के पास ही समुद्र में गिरती थी। इस संगम को त्रिवेणी का रूप माना जाता था। कालान्तर में दोनों नदियां सूख गई और कालीघाट की मां के कालीतीर्थ का महत्व दिनो दिन बढ़ता चला गया। एक अन्य मत के अनुसार गंगाजी का प्राचीन मार्ग भौगोलिक कारण से बदल कर इस स्थान पर त्रिकोण द्वीप बन गया। तब पेड़-पौधे, जंगली घास व लंबे-लंबे बाॅस से परिवृत्त इस स्थान पर धीवर, मल्लाह, कोल और आदिवासी लोगों द्वारा स्वयं के रक्षार्थ एक काली पीठ की स्थापना की गयी। यही आज कालीघाट के नाम से दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। यह कोलकाता का सबसे प्राचीन पूजन-स्थान है। अभिलेखीय विवरण है कि बंगाल के सेन वंशी राजा बाम्लाल सेन ने काली सेज का दान तांत्रिक ब्राह्मण लक्ष्मीकांत को कर दिया। तभी से इनके वंश के परिजन हलदार ब्राह्मण ही मंदिर के प्रधान पुजारी होते हैं। वैसे आज यहां बंगाल के साथ-साथ बिहार, उड़ीसा व झारखंड के ब्राह्मण भी पूजा-पाठ व भक्तों के दर्शनार्थ उपलब्ध रहा करते हैं और यहां इनकी एक वड़ी जमात है। अंग्रेजों के जमाने में, 16वीं और 18वीं शताब्दी में भी इस मंदिर की प्रतिष्ठा प्रभविष्णु बनी रही। मि. वार्ड नामक अंगे्रज लेखक लिखते हैं कि कोलकाता नगर के संस्थापक जाॅब चार्नाक की भारतीय पत्नी के साथ कितने ही अंग्रेज अधिकारियों की महिलाएं काली मंदिर में मनौती मांगने आती थीं। विवरण है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने एक बार यहां पांच हजार रूपये का दान मंदिर को अर्पित किया। आज भी इस मंदिर में चढ़ने वाला चढ़ावा इसे देश के बेशकीमती मंदिरों की श्रेणी में स्थापित करता है। बंगाल में खासकर कोलकाता में रहने वाले न सिर्फ हिंदू वरन् दूसरे धर्म-जाति के लोग भी मां के दरबार से अटूट आस्था व अदम्य विश्वास के साथ जुड़े हैं। प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में यहां स्नान-यात्रा के समय और शेष दिनों में भी महामाया काली का विधिवत अभिषेक होता है। इस मंदिर का वर्तमान उद्धार 1969 में किया गया था। उस समय बिड़ला परिवार की तरफ से यहां तोरण द्वार बनवाया गया। 90 फीट ऊंचे इस मंदिर का शिखर बड़ा ही चित्ताकर्षक व दैवी साधना के अनुरूप है। मंदिर निर्माण की बंग शैली पर आधारित मां का यह मंदिर बड़ा ही मनोहारी व उत्कृष्ट मीनाकारी युक्त है जिसके चारो तरफ लगे इटेलियन श्वेत व रंगीन पत्थर इसकी शोभा को द्विगुणित कर रहे हैं। बताया जाता है मुख्य मंदिर के नष्ट होने के बाद यह मंदिर बना जिसके ऊपर शंक्वाकार शिखर का अभाव है। कहा जाता है कि इस स्थान का वर्तमान उद्व ार महायोगी गोरखनाथ ने किया है। यहां की माता काली का विग्रह प्रभावोत्पादक है जो हरेक भक्त की अभीष्ट-पूर्ति करता है। काली घाट क्षेत्र के दर्शनीय स्थलों में श्री भोले भंडारी (एकादश महादेव), नकुलीश (नकुलेश्वर) भैरव, लाट मंदिर, मनसा वृक्ष देव स्थान, काली कुंड, राधाकृष्ण मंदिर, कालीघाट का महाश्मशान (केवडातला), भू कैलाश आदि प्रमुख हैं। यहां का श्मशान सिद्धिकारण बताया जाता है। भक्तों के सहायतार्थ यहां फूल-माला व पूजन-सामग्री की दर्जनों दुकानें हैं वैसे यहां पर पंडों का भी चक्कर है जिनसे स्पष्ट वार्तालाप करने के बाद ही दर्शन का मन बनाना उपयुक्त रहता है। मंदिर के चतुर्दिक विकास के लिए यहां कालीघाट टेम्पल कमेटी (के. टी. सी.) और श्री श्री कालीमाता ठाकुरानी कमेटी अपने कर्तव्य कर्म का बखूबी निर्वहन कर रहे हंै। वैसे तो यहां हर दिन भक्तों के आगमन से मेला लग जाता है पर प्रत्येक मंगलवार-शनिवार व किन्ही पर्व-तिथियों के साथ-साथ वर्ष के दोनों नवरात्र में, दूर-दूर के भक्तों के आगमन से यहां विशाल मेला लग जाता है। ज्ञातव्य है कि कोलकाता में हुगली नदी के किनारे मां काली का एक और अघुनातन देवालय ‘‘दक्षिणेश्वर’’ के नाम से प्रसिद्ध है जो साधक श्रेष्ठ रामकृष्ण परमहंस की दैवी साधना स्थली के रूप में दूर-दूर तक ख्यात है। इसके अलावा कोलकाता में दर्जनों ख्यातनाम कालीबाड़ी (मां काली मंदिर) हैं जिनमें ठनठनिया काली मंदिर, भद्र काली मां मंदिर व फिरंगी काली बाड़ी का विशेष मान है। सचमुच मां काली जी के श्रेष्ठ पूजन स्थलों में एक, कोलकाता का कालीघाट दर्शनीय है। यही कारण है कि किसी भी काम से कोलकाता जाने के मौके पर समय-सुविधा निकालकर यहां मातृदर्शन अवश्य किया करते हैं। ज्ञान व धर्म-भक्ति की भूमि बंगाल के हृदय-स्थल कोलकाता नगर की अधिष्ठात्री देवी मां काली जी हैं जिनकी कृपा दृष्टि से हर एक कठिन कार्य सहज ही सफलीभूत हो जाता है।