हृदय प्राणियों का वह महत्वपूर्ण अंग है जिसके माध्यम से जीवनी शक्ति का संचार पूरे शरीर में होता है। शिराएं अनुपयुक्त रक्त लेकर हृदय में आती हैं और हृदय उस रक्त को शुद्ध कर उसे संवेग के साथ धमनियों के द्वारा शरीर के प्रत्येक अंग में भेजता है और इस प्रकार शरीर के अंग प्रत्यंग को जीवन ऊर्जा प्राप्त होती है। जब हृदय की धड़कन रुक जाती है तो जीवनी शक्ति (प्राण) शरीर में नहीं रहती और प्राणी मृत्यु को प्राप्त होता है। सौर मंडल में सभी ग्रह सूर्य के चारांे ओर परिक्रमा करते हैं और सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं।
चूंकि सूर्य ऊर्जा (प्राण) का स्रोत है इसलिए वह हृदय का प्रतिनिधित्व करता है। चंद्र मन एवं मन से उत्पन्न विचार, भाव, संवेदना, लगाव का परिचायक है तो शुक्र प्रेम, आसक्ति व भोग का। काल पुरुष की नैसर्गिक कुंडली में चतुर्थ भाव कर्क राशि का है जिसका स्वामी चंद्र है। पंचम भाव सिंह राशि का है जिसका स्वामी सूर्य है। चंद्र मन का कारक होने के कारण मन में उत्पन्न विचार एवं भावनाओं का सृजनकर्ता है
जिनका संचयन किसी के प्रति प्रेम, चाहत, आसक्ति, लगाव या फिर घृणा उत्पन्न करता है और इसीलिए चतुर्थ भाव से द्वितीय (धन) अर्थात पंचम भाव प्रेम, स्नेह, अनुराग का है। इसी बात को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि षष्ठम भाव शत्रुता और मनमुटाव का है और इसका व्यय स्थान (इससे द्वादश भाव) अर्थात पंचम भाव शत्रुता के व्यय (नाश) का अर्थात मेल मिलाप, प्रेम व लगाव का भाव है। जब प्रेम आसक्ति में निराशा मिलती है या वांछित परिणाम परिलक्षित नहीं होते, तो मानसिक आघात लगता है जो हृदय संचालन को असंतुलित करता है।
इससे हृदय में विकार उत्पन्न होते हैं और व्यक्ति रोगग्रस्त होता है। इसलिए पंचम से द्वादश अर्थात चतुर्थ भाव हृदय संबंधी विकारों का भाव हुआ। सूर्य और चंद्र का सम्मिलित प्रभाव हृदय की धड़कन गति एवं रक्त संचार को नियंत्रित करता है। सूर्य, चंद्र और उनकी राशियां क्रमशः सिंह व कर्क, चतुर्थ भाव व चतुर्थेश तथा पंचम भाव व पंचमेश पर क्रूर पापी ग्रहों (मंगल, शनि, राहु, केतु) का प्रभाव आदि हृदय को पीड़ा देते हैं।
षष्ठेश व अष्टमेश तथा द्वादशेश का इन पर अशुभ प्रभाव भी रोगकारक व आयुनाशक ही होता है। राहु-केतु का स्वभाव आकस्मिक एवं अप्रत्याशित रूप से परिणाम देने का है इसलिए राहु-केतु की युति या प्रभाव का अचानक एवं अप्रत्याशित हृदयाघात, दिल का दौरा आदि की स्थिति उत्पन्न कर सकता है। सामान्यतः सूर्य व चंद्र पर अशुभ प्रभाव के साथ-साथ चतुर्थ भाव पर अशुभ प्रभाव हृदय से संबंधित विकार एवं रोगों की स्थिति उत्पन्न करता है जबकि पंचम भाव पर अशुभ प्रभाव प्रेम, आसक्ति, चाहत से संबंधित स्थिति बताता है।
इसलिए हृदय विकार, प्रेम, भावनाओं एवं उनके परिणामों के संबंध में फलादेश करने के पूर्व वर्णित भावों, राशियों एवं ग्रहों की स्थिति और उन पर शुभ-अशुभ प्रभावों का सही आकलन एवं विश्लेषण कर लेना चाहिए।
निम्नलिखित ग्रह स्थितियां हृदय विकार एवं मानसिक संताप उत्पन्न कर सकती हैं:
Û चतुर्थ भाव में मंगल, शनि तथा गुरु का क्रूर ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना।
Û चतुर्थ भाव में गुरु, सूर्य तथा शनि की युति का अशुभ प्रभाव में होना।
Û चतुर्थ भाव में षष्ठेश का क्रूर ग्रह से युक्त या दृष्ट होना।
Û चतुर्थ भाव में क्रूर ग्रह होना और लग्नेश का पाप दृष्ट होकर बलहीन होना या शत्रु राशि या नीच राशि में होना।
Û. मंगल का चतुर्थ भाव में होना और शनि का पापी ग्रहों से दृष्ट होना।
Û शनि का चतुर्थ भाव में होना और षष्ठेश सूर्य का क्रूर ग्रह से युक्त या दृष्ट होना।
Û चतुर्थ भाव में क्रूर ग्रह होना तथा चतुर्थेश का पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना या पापी ग्रहों के मध्य (पाप कर्तरी योग में) होना।
Û चतुर्थेश का द्वादश भाव में द्वादशेश (व्ययेश) के साथ होना।
Û पंचम भाव, पंचमेश, सिंह राशि तीनों का पापी ग्रहों से युक्त, दृष्ट या घिरा होना।
Û पंचमेश तथा द्वादशेश का एक साथ छठे, आठवें, 11वें या 12 वें भाव में होना।
Û पंचमेश तथा षष्ठेश दोनों का षष्ठम भाव में होना तथा पंचम या सप्तम भाव में पापी ग्रह का होना।
Û अष्टमेश का चतुर्थ या पंचम भाव में स्थित होकर पाप प्रभाव में होना।
Û चंद्र और मंगल का अस्त होकर पाप युक्त होना।
Û सूर्य, चंद्र व मंगल का शत्रुक्षेत्री एवं पाप प्रभाव में होना।
Û शनि व गुरु का अस्त, नीच या शत्रुक्षेत्री होना तथा सूर्य व चंद्र पर पाप प्रभाव होना।
आइए, अब कुछ जन्मकुंडलियों की सहायता से हृदय विकारों एवं संतापांे की स्थिति के संबंध में विचार करें। जन्मकुंडली 1 एक ऐसे अधिकारी की है जिसे अप्रत्याशित रूप से हृदय की शल्य क्रिया से गुजरना पड़ा। यहां चतुर्थ स्थान में हृदय का प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रह सूर्य की युति केतु के साथ है और कर्क स्थित गुरु की नीच दृष्टि है।
राहु इस अशुभ प्रभाव को और बढ़ा रहा है। चतुर्थेश शनि अष्टम भाव में मंगल के साथ है और केत पंचम दृष्टि से उन्हें देख रहा है। चंद्र के दोनों ओर पापी ग्रह राहु, मंगल और शनि हैं तथा कर्क राशि भी राहु, केतु सूर्य जैसे क्रूर ग्रहों के प्रभाव में है। गुरु 290 का व वक्री होने से तथा तृतीयेश षष्ठेश होने से बहुत मददगार नहीं रहा। इस प्रकार चतुर्थ भाव, चतुर्थेश शनि, सूर्य, चंद्र और कर्क राशि पर पाप प्रभाव ने जातक को हृदय रोग से पीड़ित किया और राहु, केतु तथा मंगल के अशुभ प्रभाव के कारण अचानक शल्य क्रिया करानी पड़ी। कुंडली 2 एक संभ्रांत और संपन्न परिवार की महिला की है
जिसे प्रेम संबंधों में घोर निराशा मिली। यहां चतुर्थ भाव में प्रेम कारक लग्नेश शुक्र स्थित है किंतु वह अष्टमेश होकर अलगाववादी ग्रह शनि के साथ है। मन का कारक चंद्र पूर्ण कला का होकर अष्टम भाव में मंगल के साथ है। चंद्र के पूर्ण व बली होने तथा तुला लग्न के लिए शनि के केन्द्रेश त्रिकोणेश होने से शुक्र व चंद्र के शुभत्व ने जातका के सुमधुर प्रेम संबंध एक व्यक्ति से बनाए किंतु अशुभ प्रभावों ने इन संबंधों को स्थिरता प्रदान नहीं की। प्रेम और चाहत के भाव (पंचम) पर राहु-केतु का प्रभाव है तथा पंचमेश शनि पंचम से बारहवें व्यय भाव अर्थात चतुर्थ भाव में चला गया है।
सूर्य पर मंगल की सप्तम दृष्टि है तथा वह द्वादशेश बुध के साथ द्वितीय भाव में है। सूर्य की राशि सिंह पर राहु-केतु का प्रभाव है और मंगल की चतुर्थ तथा षष्ठेश गुरु की नवम दृष्टि है। इस प्रकार सूर्य, चंद्र, शुक्र, चतुर्थ व पंचम भावों तथा कर्क और सिंह राशियों पर पाप प्रभाव के कारण जातका के प्रेम संबंध विच्छेद हो जाने पर उसे गहन आघात पहुंचा जिसके परिणामस्वरूप वह हृदय रोग से ग्रस्त हुई और अंततोगत्वा उसे असमय ही इस दुनिया से विदा होना पड़ा।
इस कुंडली का दूसरा पहलू यह भी रहा कि लग्नेश शुक्र के चतुर्थ (सुख) स्थान में स्वराशिस्थ एवं पंचमेश शनि के साथ होने, लाभेश (एकादशेश) सूर्य के धन (द्वितीय) भाव में बुध (भाग्येश) के साथ होने तथा मंगल (धनेश) व चंद्र (कर्मेश) से दृष्ट होने के कारण जातका को भौतिक सुख सुविधा, धन, वाहन आदि की कमी नहीं रही। कुंडली 3 में चंद्र अष्टम भाव में अष्टमेश शनि और केतु के साथ है तथा षष्ठेश मंगल की उस पर दृष्टि है। चंद्र की राशि कर्क पर मंगल, शनि, राहु और केतु का प्रभाव है।
सूर्य चतुर्थेश व लग्नेश बुध तथा द्वादशेश व पंचमेश शुक्र के साथ द्वादश (व्यय) भाव में हैऔर उन पर केतु की पंचम दृष्टि है। चतुर्थ भाव पर गुरु की सप्तम व केतु की नवम दृष्टि है। पंचम भाव पर षष्ठेश व एकादशेश मंगल तथा अष्टमेश शनि की दृष्टि है। लग्नेश और चतुर्थेश बुध द्वादश भाव में अस्त है। पंचम भाव एवं पंचमेश पर प्रबल पाप प्रभाव ने जातका को उसकी एक मात्र संतान से वंचित किया। इस संतान से उसका बहुत गहरा लगाव था। जातका इस वियोग को सहन नहीं कर सकी और मन कारक चंद्र पर अशुभ प्रभाव के कारण उसे गहरे मानसिक आघात एवं संताप से गुजरना पड़ा जिससे वह कुछ दिन तक कोमा जैसी स्थिति में भी रही।
शुभ ग्रह स्वराशिस्थ गुरु की चतुर्थ भाव पर दृष्टि ने उसे जीवन दान दिया किंतु केतु की दृष्टि व चतुर्थेश बुध पर अशुभ प्रभाव ने उसे हृदय विकार भी दिया यद्यपि वह घातक नहीं रहा। कुंडली 4 एक ऐसे युवक की है जिसका विजातीय लड़की से प्रेम संबंध स्थापित तो हुआ किंतु परिवारजनों द्वारा उसे स्वीकार नहीं करने के फलस्वरूप उसने सल्फास खाकर अपनी जीवनलीला समाप्त की। यहां सप्तमेश मंगल पंचम स्थान में शुक्र, चंद्र, बुध व केतु के साथ है जिन पर शनि की सप्तम दृष्टि है।
शुक्र (प्रेम कारक) एवं सप्तमेश मंगल पर विजातीय ग्रहों के प्रभाव ने प्रेम संबंध तो स्थापित कराया, किंतु शुक्र के अष्टमेश बुध के द्वादशेश होकर पंचम में चंद्र के साथ होने व उन पर विच्छेदक ग्रहों का प्रभाव होने से प्रेम की परिणति विवाह के रूप में नहीं हो पाई। मन के कारक चंद्र पर मंगल, शनि, राहु व केतु के अशुभ प्रभाव ने उसे आत्महत्या जैसा कदम उठाने के लिए प्रेरित किया।
मंगल ने उसे सल्फास विष खाने को विवश किया। इस दिशा में हृदय कारक सूर्य का षष्ठम भाव में चले जाना, अष्टम भाव पर मारकेश की दृष्टि, मारकेश मंगल का शुक्र के साथ संयोग आदि ने भी प्रतिकूल परिस्थितियों का सृजन किया और राहु-केतु ने इस कार्य को अप्रत्याशित रूप से तुरंत क्रियान्वित किया।