त्रिस्कंध षडांगवेद ज्योतिषशास्त्राधिदेव शिव है। शास्त्रों में शिव को ‘‘ज्योतिष शास्त्राधिदेव’’ कहा गया है। शब्द सृष्टि के पूर्व अंक ही शब्द सम्बोध्य थे। नाद के साथ सप्त स्वरों से सात का अंक, वेद चतुष्टयी से वेदों के बोधक चार अंक, चतुर्दश माहेश्वराणि सूत्राणि महादेव के डमरू से अ, इ, उ ण, इस प्रकार चैदह व्याकरण सूत्रों की उत्पत्ति, व्याकरण अष्टाध्यायी से आठ शब्दांक, ‘‘इमानि पृथ्वी नामानि एक विंशतिः’’ निरुक्त के इक्कीस अंक, पंचभूतानि-5, दशेन्द्रियाणि-10, षट् रन्ध्राणि-6, द्वयणुक-2, त्रिसेरणु-3, शतनामानि, 100, ‘‘विष्णोः सहस्र नामानि’’-1000 आदि उदाहरणार्थ द्रष्टव्य हैं। कोटि ब्रह्माण्ड समष्टि के सूक्ष्म तत्वों एवं सौरमंडलस्थ ग्रह नक्षत्रादि की रहस्यमयी स्थितियों एवं प्रभावों का प्रत्यक्ष ज्ञान ही ज्योतिष शास्त्र है।
ज्योतिष शास्त्र न तो अबोधक है और न ही संशयादि का उत्पादक। यह एक प्रमाण शास्त्र है। मिथ्यात्व, अज्ञान, संशय इन त्रिविध अप्रामाण्यों का प्रवेश ज्योतिष शास्त्र में नहीं बल्कि अज्ञात- ज्ञापकत्वरूप प्रामाण्य स्वयं ज्योतिष शास्त्र ही है। इसका प्रमाण अन्य कोई दूसरा नहीं: ज्योतिष-ज्योति आद्य शंकर परिव्राजक स्वामी ज्ञानानन्द सरस्वती, वाराणसी प्रमाणानि च शास्त्राणि तत्प्रमाण्यं न चान्यतः- वृह. वा. पृ. 515 श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त सूक्ष्माति सूक्ष्म विद्याओं को रहस्योद्घाटित करते हुए वैदिक सनातन धर्मोद्धारक शंकरावतार भगवान श्री आद्य शंकराचार्य भगवत्पाद् ने आज से 2496 वर्ष पूर्व हिमाद्रि तुंग शृंग से आवृत्त श्री वेदव्यास भगवान की गुफा (हिमालय) में अपने प्रस्थानत्रयी भाष्य के मुकुटमणि ग्रंथ शारीरिक भाष्य ‘‘ब्रह्मसूत्र’’ के तृतीय सूत्र ‘‘शास्त्रयोनित्वात्’’ की व्याख्या द्वारा भारत देश में व्याप्त अवैदिक दुर्मतों का खंडन करते हुए ज्योतिष शास्त्र की प्रामाणिकता का डिम-डिम घोष किया और साथ ही पुरुषार्थचतुष्ट्य धर्म-अर्थ-काम मोक्ष के संसिद्धयर्थ ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि में अनुष्ठीयमान समस्त नित्यकर्म, नैमित्तिक कर्म, इष्ट कर्म, काम्य कर्म, श्रौत कर्म, स्मार्त कर्मादि कर्मकांड और उपासनाकांड की अनिवार्यता का विधान कर बद्रीधाम में ज्योतिष पीठ की स्थापना करके वैदिक धर्म प्रतिष्ठा का प्रथम आधार स्तम्भ स्थापित किया, द्रष्टव्य है: शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषम् ।।
अनेक विद्या स्थानोपवृंहितस्य पुराण न्यायमीमांसादयो दश विद्यास्थानानि।। -शांकर भाष्य, भामती 9/3 सृष्टि समष्टि के कल्याणार्थ अपौरुषेय अनन्त शब्द राशि पुराण-न्याय मीमांसा और धर्म शास्त्र के साथ षडांगवेद (वेदों के छः अंग) शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष इन ‘दश’ वेद विद्यास्थानों का अव्यवहित प्रकाश किया। आज भी वैदिक धर्म प्रतिष्ठा जगत् में आद्य शंकराचार्य भगवत्पाद अम्लान ज्योतिर्पुन्ज हैं। यही कारण है कि भारतीय आस्था ने ‘‘श्रुति स्मृति पुराणानाम् आलयम् करुणालयम्। नमामि भगवत्पादं शंकरं लोक शंकरम्’’ का जयघोष कर उन्हें ‘‘जगदगुरु श्री आद्य शंकराचार्य भगवत्पाद्’’ के रूप में अपने हृदय सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया। आद्य शंकराचार्य जी के जीवन प्रसंग में उनके अपार करुणा वरुणालय की अनेक झांकियां हमें देखने को मिलती हैं परंतु यहां हम उनके एक घटना क्रम को वर्णित करते हैं जब वे सात वर्ष की अल्पायु में एक निर्धन की दरिद्रता को दूर करने के लिए महालक्ष्मी का स्तवन करते हैं।
प्रसंग इस प्रकार है कि गुरु कुल में एक बार भिक्षा हेतु बालक ब्रह्मचारी शंकर किसी ब्राह्मण के द्वार पर गए। गुरु कुल मर्यादा के अनुसार बालक शंकर ने ‘‘भवतीं भिक्षां देहि, भवतीं भिक्षां देहि’’ की आवाज लगाई। बालक की आवाज सुनकर ब्राह्मण पत्नी घर से बाहर आई। प्रातःकाल भिक्षार्थी बालक को देख ब्राह्मणी अत्यंत दुःखी हुई, महान धर्म संकट उपस्थित हो गया। क्या करती बेचारी? घर में कुछ भी ऐसा नहीं था जो क्षुधा निवृत्ति के लिए बालक को देती। घर में ढूंढते-ढूंढते ब्राह्मणी को एक सूखा आंवला मिला । सूखा आंवला हाथ में लेकर पश्चाताप करती हुई बालक शंकर को आंवला निवेदित करके बेचारी फूट-फूट कर रोने लगी। बालक शंकर ने दुःखिया का दुःख सद्यः दूर करने का निश्चय करके भगवती महालक्ष्मी का स्तवन आरंभ किया।
शंकर द्वारा की गई दिव्य स्तुति से प्रसन्न महालक्ष्मी ने ब्राह्मणी के गृह-आंगन में स्वर्ण-आमलक की वृष्टि करके जन्म-जन्म की दरिद्रता और निर्धनता के महान दुःख को दूर किया। आद्य शंकराचार्य द्वारा किया गया यह स्तवन आज ‘‘कनकधारा स्तोत्र’’ के नाम से प्रसिद्ध है। आज भी जो साधक श्रद्धा और विश्वासपूर्वक आद्य शंकराचार्य कृत कनक धारा स्तोत्र द्वारा महालक्ष्मी का स्तवन करते हैं उनके गृह में धन-धान्य, सुख समृद्धि का अभाव नहीं होता। ‘‘कनकधारा स्तोत्र’’ एक ऐसा अमोघ शक्ति संपन्न एवं आशीर्वादात्मक मंत्र है जिसके पाठ से गृह में मंगल देवता का वास होता है और सुख-सौभाग्य-समृद्धि-संतति की वृद्धि होती है। देवी प्रसाद से अनेक मांगलिक कृत्य सम्पन्न होते हैं।
कुटुम्बी जनों में काम, क्रोध, लोभ, मात्सर्य, गृह कलह आदि अशुभ मति नहीं होती। ‘‘कनकधारा स्तोत्र’’ का नियमित पाठ करने वाले के घर में कभी भी अल्प मृत्यु नहीं होती। प्रत्येक द्वादशी तिथि और शुक्रवार के दिन कनकधारा यंत्र का केसर-हरिद्रामिश्रित पंचामृत से अभिषेक करके 16 वार कनकधारा स्तोत्र का पाठ करना अत्यंत सौभाग्यदायी, ऐश्वर्यप्रद एवं श्रेयस्कर होता है। वस्तुतः देवाधिदेव चन्द्रमौलीश्वर भगवान शंकर ने प्राणियों की पीड़ा दूर करने और वैदिक धर्म की रक्षा के लिए ही यतीश्वर आद्य शंकराचार्य के रूप में 2514 वर्ष पूर्व कलि सम्वत् 2593 वैशाख शुक्ल पंचमी रविवार को पुनर्वसु योग में केरल प्रान्त के कालड़ी ग्राम में माता आर्याम्बा पिता शिवगुरु के सुकृत्यांचल में अवतार लिया था।
आशुतोष भगवान शंकर ने स्वयं कैसे आद्य शंकराचार्य के रूप में वैदिक धर्म संस्थापनार्थाय वैदिक अवतार धारण किया था इसके अनेक कल्याणप्रद प्रसंगों की प्रस्तुति क्रमशः अगले अंकों में की जाएगी। आत्म तत्व गवत्पाद श्री आद्य षंकराचार्य की दृष्टि में वेदांत प्रतिपाद्य आत्म तत्व ‘सर्वज्ञ’ है, अर्थात् समष्टि रूप में माया के आवरण से घिरा रहता है। और सामान्य रूप से भी वह सब कुछ जानता है। अविद्या के आवरण से अनंत जीव भाव अर्थात नामरूपात्मक जगत् में कर्तृत्व और भोक्तृत्वपन को प्राप्त कर विशेष रूप से ( व्यष्टि रूप से) सब कुछ जानता है। हृदयाकाश उसका दिव्य ब्रह्मपुर है, जिसमें आत्मा वास करती है।
उसके पांच कोष हैं- अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय। उसके तीन शरीर हैं - कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर। सर्वज्ञता उसका कारण शरीर है, चाहे वह समष्टि रूप से मायोपाधिक सर्वज्ञता हो अथवा व्यष्टि रूप से अविद्योपाधिक। अनन्त जीवगत सर्ववेतृता, यह ज्ञानमय प्रकाश ही उसका विज्ञानमय कोष है। सृष्टि की इच्छा से सोपाधिक हिरण्यगर्भ जब अनन्तजीव भाव प्राप्त करता है तब पहले वह सूक्ष्म शरीर धारण कर मनोमय और प्राणमय कोष में व्याप्त होकर एक अन्नमय कोष (स्थूल शरीर) से दूसरे स्थूल शरीर में प्रविष्ट होकर विचरण करता है और वहीं हृदयाकाश (दिव्य ब्रह्मपुर) में अवस्थित रहता है।
विवेकी और धीर पुरुष विज्ञानमय कोष में उस आत्मा का साक्षात्कार करते हैं और आनंदमय कोष में पहुंचकर स्वयं सच्चिदानंद स्वरूप हो जाते हैं और अमृतपद-कैवल्यपद प्राप्त करते हैं। भगवती श्रुति श्री कहती हैं: यः सर्वज्ञ सर्वविद् यस्यैष महिमा भुवि। दिव्ये ब्रह्मपुरे हि एष व्योमात्मा सम्प्रतिष्ठितः।। मनोमयः प्राण शरीर नेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय। तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद् विभाति।। (मु. उ. 2/2/6) योगेश्वर भगवान श्री कृष्णचंद्र भी कुंतीपुत्र अर्जुन के माध्यम से जीव जगत् को उपदिष्ट करते हैं ‘‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’’ गीता 18/61 अर्थात हे अर्जुन ! सबका शासक, नियामक, पालक एवं संचालक सर्व अंतर्यामी ईश्वर संपूर्ण प्राणियों के हृदय में रहता है।
जो जीवित रहते ही इह लोक में संत शास्त्र गुरु कृपा से आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है, वस्तुतः उस व्यक्ति का ही जन्म सार्थक है। अन्यथा जो इस मनुष्य जन्म में आत्म तत्व को नहीं जान पाता उसकी महान क्षति होती है। अतः विवेकवान पुरुष को चाहिए कि वह प्रत्येक जीव में आत्मस्वरूप ध्यान का अभ्यास करता हुआ परस्पर शुद्ध व्यवहार करे और जीवनमुक्त हो जाए। मनुष्य शरीर प्राप्ति का सच्चा उद्देश्य और परमार्थ भी यही है। आद्यशंकराचार्य कृत कनकधारा स्तोत्रम् आद्यशंकराचार्य कृत कनकधारा स्तोत्रम् आद्यशंकराचार्य कृत कनकधारा स्तोत्रम् अङगं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङगाङग नेव मुकुलाभरणं तमालम्। अङगीकृताखिलविभूतिरपाङग लीला माङग ल्यदास्तु मम मङग लदेवतायाः
।। 1।। जिस प्रकार भ्रमरी अर्धविकसित पुष्पों से अलंकृत तमालवृक्ष का आश्रय ग्रहण करती है, उसी प्रकार भगवान् श्री हरि के रोमांच से शोभायमान भगवती लक्ष्मी जी की कटाक्ष लीला श्री अंगों पर अनवरत पड़ती रहती है और जिनमें समस्त ऐश्वर्य-धन-सम्पत्ति का निवास है, उन समस्त मंगलों की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी की कटाक्ष लीला मेरे लिए भी मंगलदायिनी हो। मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि। माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसंभवायाः
।। 2।। जिस प्रकार भ्रमरी कमलदल पर मंडराती रहती है, उसी प्रकार भगवान मुरारि के मुखकमल की ओर प्रेम सहित जाने और लज्जा से वापस आनेवाली समुद्रकन्या लक्ष्मी की मनोहर मुग्ध दृष्टिमाला मुझे अतुल श्री-ऐश्वर्य प्रदान करे। विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि। ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्द्धमिन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः
।। 3।। जो समस्त देवों के स्वामी इन्द्रपद का वैभव-विलास देने में समर्थ हंै तथा जो मुर नामक दैत्य के शत्रु भगवान श्रीहरि को भी अत्यंत आनन्द प्रदान करने वाली हैं एवं नीलकमल जिन लक्ष्मी का सहोदर भ्राता है, उन लक्ष्मी जी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि किंचित क्षण के लिए मुझ पर थोड़ी अवश्य पड़े। आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दमनिमेषमनङग तन्त्रम्। आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङग शयाङग नायाः
।। 4।। जिनकी पुतलियां एवं भौंहें काम के वशीभूत हो अर्धविकसित एकटक नयनों से देखनेवाले आनन्दकन्द सच्चिदानन्द भगवान मुकुन्द को अपने सन्निकट पाकर किंचित तिरछी हो जाती हैं उन शेषशायी भगवान श्रीविष्णु की अर्धांगिनी भगवती लक्ष्मी जी के नेत्र हमें प्रभूत धन-सम्पत्ति प्रदान करें। बाह्नन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभेया हारावलीव हरिनीलमयी विभाति। कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः
।। 5।। जिन भगवान मधुसूदन के कौस्तुभ मणि से विभूषित वक्षस्थल पर इन्द्रनीलमयी हारावली की तरह सुशोभित होती हैं, उन (भगवान) के चित्त में काम (स्नेह) संचारिणी, कमल-कुंजनिवासिनी लक्ष्मी जी की कृपा कटाक्षमाला मेरा भी मंगल करे। कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति यत्तटिदङग नेव। मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्तिर्भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः
।। 6।। जिस प्रकार मेघों की घनघोर घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार कैटभ दैत्य के शत्रु श्रीविष्णु भगवान के काली मेघपंक्ति की तरह मनोहर वक्षस्थल पर वह विद्युत के समान देदीप्यमान होती हैं, उन समस्त लोकों की माता, भार्गवपुत्री भगवती श्रीलक्ष्मीजी की पूजनीय मूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे। प्राप्तं पदं प्रथमतः खलु यत्प्रभावान्माङग ल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन। मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः
।। 7।। समुद्रकन्या लक्ष्मी की वह मन्दालस, मन्थर, अधोन्मीलित चंचल दृष्टि के प्रभाव से कामदेव ने मंगलमूर्ति भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम स्थान प्राप्त किया था, वही दृष्टि यहां मेरे ऊपर पड़े। दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारामस्मिन्नकिंचनविहंशिशौ विषण्णे। दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं नारायणप्रणयिनीययनाम्बुवाहः
।। 8।। भगवान् नारायण की प्रेमिका भगवती लक्ष्मी जी का नेत्ररूपी मेघ, दयारूपी अनुकूल हवा से प्रेरित होकर दुष्कर्मरूपी धाम को दीर्घकाल के लिए दूर हटाते हुए मुझ जैसे विषादग्रस्त दीन-दुःखीरूपी चातक सदृश गरीब पर धनरूपी जलधारा की वर्षा करे। इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्रदृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते। दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः
।। 9।। विलक्षण मतिमान मनुष्य जिनके प्रीतिपात्र होकर उनकी कृपा के प्रभाव से स्वर्गपद को अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं कमलासना, कमला, लक्ष्मीजी की विकसित कमल गर्भ के समान कान्तिमयी दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि-सन्तति इत्यादि की वृद्धि प्रदान करे। गीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति शाकंभरीति शशिशेखरवल्लभेति। सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै
।।10।। जो सृष्टि क्रीड़ा के अवसर पर वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के स्वरूप में विराजमान होती हैं तथा पालन क्रीड़ा के समय भगवान गरुड़ध्वज अर्थात भगवान विष्णु की सुन्दरी पत्नी लक्ष्मी (वैष्णवी शक्ति) के स्वरूप में स्थित होती हैं एवं प्रलय लीला की बेला पर शाकंभरी (भगवती दुर्गा) अथवा भगवान श्रीशंकर की प्रियपत्नी पार्वती (रुद्र शक्ति) के रूप में विद्यमान होती हैं, उन त्रिलोक के एकमात्र गुरु भगवान् विष्णु की प्रेमिका नित्ययौवना भगवती लक्ष्मी जी को मेरा नमस्कार है। श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै। शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै
।। 11।। हे शुभ कर्मों के फल को देने वाली भगवती लक्ष्मि! श्रुति स्वरूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों के समुद्र स्वरूपा रति के रूप में रहने वाली हे लक्ष्मि! आपको नमस्कार है। शतपत्र वाले कमलकुंज में निवास करने वाली शक्तिरूपा रमा को नमस्कार है तथा पुरुषोत्तम भगवान श्रीहरि की अत्यंत प्राणप्रिय पुष्टिरूपा भगवती लक्ष्मी को नमस्कार है। नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूस्यै। नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै
।। 12।। कमल के समान मुख वाली लक्ष्मी को नमस्कार है। क्षीरसागर में उत्पन्न होने वाली रमा को प्रणाम है। चन्द्रमा और अमृत की सहोदर बहन भगवती लक्ष्मी को नमस्कार है। भगवान नारायण की प्रेयसी भगवती लक्ष्मी को नमस्कार है। संपत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि। त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये
।। 13।। हे कमलाक्षि! आपके चरणों में की हुई स्तुति ऐश्वर्यदायिनी और समस्त इन्द्रियों को आनन्दकारिणी है तथा स्तुति साम्राज्य (पूर्णाधिकार देने में सर्वथा समर्थ) एवं सम्पूर्ण पापों को नष्ट करने में उद्यत है। अतः हे माते! मुझे आपके चरण कमलों की पूजा करने का सदा शुभ अवसर मिलता रहे। यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः सेवकस्य सकलार्थसंपदः। संतनोति वचनाङग मानसैस्त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे
।। 14।। जिनकी कृपा-कटाक्ष की प्राप्ति के लिए की गई उपासना उपासक के लिए समस्त मनोरथ और सम्पत्ति का विस्तार करती है, उन भगवान मुरारि की हृदयेश्वरी भगवती लक्ष्मी जी को मैं मन, वचन और शरीर से भजता हूं। सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे। भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्
।। 15।। हे भगवान श्रीहरि की प्रिय पत्नी भगवति! आप कमलकुंज में विराजमान होती हैं, आपके करकमलों में नीलकमल शोभायमान है। आप श्वेत वस्त्र तथा गन्ध, माला आदि से सुशोभित हैं। आपकी छवि सुन्दर तथा अद्वितीय है। हे त्रिभुवन को वैभव प्रदान करने वाली माता लक्ष्मि! आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों। दिध्ध्स्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्टः स्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुताङग ीम्। प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेषलोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम्
।। 16।। दिग्गजों के द्वारा कनककुम्भ (स्वर्णकलश) के मुख से निर्झरित आकाश गंगा के स्वच्छ, मनोहर जल से जिनके श्री अंग का अभिषेक होता है, उन समस्त लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की पत्नी, क्षीरसागर की पुत्री, जगन्माता भगवती लक्ष्मी को मैं प्रातः काल नमस्कार करता हूं। कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरङिग तैरपाङग ैः। अवलोकय मामकि×चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः
।। 17।। हे कमलनयन भगवान विष्णु की प्रिया लक्ष्मि! मैं दीन-हीन मनुष्यों में अग्रगण्य हूं, इसलिए आपकी कृपा का स्वभावसिद्ध पात्र हूं। आप उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरल-तरंगों के समान कटाक्षों द्वारा मेरी ओर भी दृष्टि कीजिए। स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमिभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्। गुणाधिका गुरुतरभाग्यभाजिनो भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः
।। 18।। जो लोग इन स्तोत्रों के द्वारा नित्यप्रति वेदत्रयी स्वरूपा, तीनों लोकों की माता, भगवती रमा (लक्ष्मी) की स्तुतिगान करते हैं, वे इस पृथ्वी पर महागुणी और सौभाग्यशाली होते हैं एवं विद्वज्जन भी उनके मनोगत भाव को समझने के लिए विशेष इच्छुक रहते हैं। इति श्रीकनकधारा लक्ष्मीस्तोत्रम्।।