मुहूर्त में तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण, चंद्र मास, सूर्य मास, अयन, ग्रहों के उदय और अस्त, ग्रहण एवं प्रतिदिन के लग्न का अध्ययन करना होता है। समय परिवर्तनशील है। जो कल था, आज नहीं है और जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। जिन लोगों को ग्रह-नक्षत्र आदि पर विश्वास हो, उन्हें हर कार्य शुभ समय पर ही करना चाहिए। जो लोग ‘कोर्ट मैरिज’ करते हैं, वे न तो किसी से कुंडली मिलवाते हैं, और न ही मुहूर्त देखकर कागज़ पर हस्ताक्षर किया जाता है, फिर भी शादी सफल हो जाती है।पर अगर शादी के बाद भी कुंडली मिलान की जाए, शादी के दिन का नक्षत्र देखा जाए और दस्तखत करने का समय देखा जाए तो यह सारी स्थिति वर-वधू के द्वितीय, सप्तम एवं एकादश भावों से (जो शादी के भाव होते हं संबंधित होगी, अन्यथा शादी शुभ नहीं हो सकती। अतः इस पर विवाद करना ठीक नहीं होगा। अन्य ग्रहों का संबंध मनुष्य पर या पृथ्वी पर स्पष्ट रूप में पड़े या नहीं, पर सूर्य एवं चंद्र का स्पष्ट प्रभाव पड़ता है।
सूर्य के भिन्न-भिन्न नक्षत्रों में प्रवेश करने से मौसम बदलते रहते हं, उसी प्रकार पूर्णिमा एवं अमावस्या के फलस्वरूप समुद्र में ज्वार भाटा स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। पूर्णिमा एवं अमावस्या को मानसिक रूप से असंतुलित लोग ज्यादा परेशान रहते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि ग्रह-नक्षत्र का प्रभाव पृथ्वी के साथ-साथ मनुष्य पर भी पड़ता है। मौसम में परिवर्तन सूर्य-चंद्र क सम्मिलित प्रभाव से होता है।
जब सूर्य रोहिणी में प्रवेश करता है तो बहुत गर्मी पड़ती है, मृगशिरा में इतनी गर्मी नहीं होती है एवं आद्र्रा में वर्षा शुरू हो जाती है। सूर्य के नक्षत्र के अनुसार किसानों को अपने खेत में बीज बोने के लिए निर्देश दिया गया है। अगर गलत नक्षत्र में बीज बोए जाएं, तो फसल नहीं होगी। इस तरह यहां भी मुहूर्त देखने की जरूरत है। सूर्य मास की तरह ही चंद्र मास भी होता है। चित्रा नक्षत्र जिस मास की पूर्णिमा को होता है वह महीना चैत्र कहा जाता है, विशाखा अगर पूर्णिमा को हो तो वैशाख मास आदि।
शुभ मुहूर्त निर्धारण में वर्जित योग
1. जन्म नक्षत्र, जन्म तिथि, जन्म मास, माता-पिता की मृत्यु के दिन आदि।
2. क्षय तिथियां, वृद्धि तिथियां, क्षय मास, अधिमास, क्षय वर्ष, दग्ध तिथियां आदि।
3. जो योग नाम से ही हानिकारक लगे, उसे कभी भी शुभ काम में प्रयोग नहीं करना चाहिए। पर जरूरी होने पर परिहार का उपयोग किया जा सकता है, जैसे विष्कुंभ एवं वज्र योग में आरंभ की तीन घड़ियां छोड़ देनी चाहिए। परिघ का पूर्वार्द्ध, शूल की प्रथम पांच घड़ियां, गंड और अतिगंड की आरंभ की 5 घड़ियां, व्याघात की 9 घड़ियां वर्जित हैं। व्यतिपात एवं वैधृति का कोई परिहार नहीं होता, वे त्याज्य हैं।
- तिथि, नक्षत्र एवं लग्न, तीनों के गंडांत वर्जित हैं।
- करणों में विष्टि, जिसे भद्रा भी कहा जाता है, शुभ मुहूर्त में नहीं लेना चाहिए। पर अगर बहुत ही जरूरी हो तो परिहार देखना चाहिए।
यह बहुत ही अशुभ करण होता है, अतः इसके बारे में कुछ विशेष जानकारी आवश्यक है। शुक्ल पक्ष की अष्टमी और पूर्णमासी के पूर्वार्द्ध और चैथी एवं एकादशी के उत्तरार्द्ध में तथा कृष्ण पक्ष की तीज एवं दशमी के उत्तरार्द्ध और सप्तमी एवं चतुर्दशी क पूर्वार्द्ध में भद्रा होती है।
तिथि के उत्तरार्द्ध में होने वाली भद्रा यदि दिन में हो तो शुभ होती है। इसी प्रकार पूर्वार्द्ध में होने वाली भद्रा रात्रि में हो तो शुभ होती है। भद्रा मुख पर हो तो आरंभ की 5 घड़ियां एवं पुच्छ पर हो तो अंत की 3 घड़ियां अशुभ होती हैं। शुभ कार्य में भद्रा वर्जित है, पर युद्ध में, राजा के दर्शन में, वैद्य बुलाने में, जल में तैरने में, शत्रु का उच्चाटन करने में, स्त्री सेवा करने में, यज्ञ स्नान में एवं गाड़ी की सवारी में भ्रदा का विचार नहीं किया जाता है।
- मंगलवार, रविवार एवं शनिवार को पाप ग्रह की होरा में शुभ कार्य नहीं करना चाहिए।
- तिथि, नक्षत्र एवं दिन से बने अशुभ योगों में शुभ कार्य न करें। (देखें सारणी)।
- पाप ग्रह युक्त चंद्र, पाप युक्त लग्न और पाप युक्त लग्न के नवांश में शुभ काम नहीं करना चाहिए।
- शुक्ल पक्ष सभी कामों के लिए शुभ माना जाता है और कृष्ण पक्ष की 3, 8, 13, 14 को छोड़ अन्य तिथियां शुभ होती हैं।
- क्षीण चंद्र शुभ नहीं होता। इसी प्रकार जन्म राशि से या जन्म लग्न से अष्टम राशि शुभ नहीं होती। जन्म लग्न से एवं जन्म राशि से षष्ठ, अष्टम एवं द्वादश का चंद्र भी अशुभ होता है।
- यदि किसी नक्षत्र पर मंगल आदि पाप ग्रहों का युद्ध हो तो 6 महीने तक शुभ कार्य नहीं करने चाहिए। ग्रहण के पहले 3 दिन एवं बाद के 7 दिन अशुभ होते हैं। जिस नक्षत्र पर ग्रहण लगा हो, उस नक्षत्र में कोई भी शुभ काम नहीं करना चाहिए।
- गुरु एवं शुक्र के अस्त के समय शुभ कार्य नहीं करने चाहिए।
- केतु उदय एवं भूकंप आदि होने के 7 दिन तक शुभ कार्य नहीं करने चाहिए।
- बच्चे के नामकरण का मुहूर्त इन नक्षत्रों में करना चाहिए-चित्रा, अनुराधा, मृगशिरा, रेवती, रोहिणी, अश्विनी, तीनों उत्तरा, हस्त, पुष्य, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा। वारों में रविवार, चंद्रवार, बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार इस संस्कार के लिए शुभ होते हंै।
- शिशु का अन्नप्राशन भी महत्वपूर्ण होता है। पुत्र का अन्नप्राशन सम मास में छठे या इसके बाद एवं कन्या का विषम मास में पांचवें या इसके बाद करना शुभ होता है।
इसके लिए तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित, स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा शुभ नक्षत्र हैं। रिक्ता, नंदा, अष्टमी और दशमी तिथियां, रविवार, मंगलवार, शनिवार तथा जन्म लग्न से अष्टम लग्न और 12, 1, 8 लग्न वर्जित हैं। 3रे, 9वें और 11वें भावों में पाप ग्रह हांे एवं 1ले, 6ठे भाव में चंद्र न हो, तो शुभ होता है।
शिशु को भूमि पर बैठाना एवं जीविका परीक्षा: यह संस्कार मंगल के बली रहने पर जन्म से पांचवें महीने में रिक्ता तिथि को छोड़कर अन्य तिथियों में करना चाहिए और तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिरा, ज्येष्ठा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य में बारह देवताओं की पूजा कर एवं शिशु की कमर में धागा बांध उसे पृथ्वी पर बैठाना चाहिए। इसी समय बच्चे के सामने पुस्तक, कलम, हथियार, कपड़ा, सोना-चांदी, पैसा आदि रखना चाहिए। -
विद्या आरंभ: जन्म से पांचवें वर्ष में गणेश, सरस्वती, लक्ष्मी एवं विष्णु का पूजन कर उत्तरायण में शुभ दिन को मृगशिरा, आद्र्रा, पुनर्वसु, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, अश्विनी, मूल, तीनों पूर्वा, पुष्य, अश्लेषा आदि नक्षत्रों में एवं 2, 3, 5, 6, 10, 11, 12 तिथियों में 1, 4, 7 और 10 चर लग्न को छोड़, शुभ लग्न में जब त्रिकोण, केंद्र में शुभ ग्रह हों, तब बालक को अक्षरारंभ कराना शुभ होता है। गुरुवार, बुधवार या शुक्रवार को अक्षर ज्ञान कराना शुभ होता है।
यज्ञोपवीत संस्कार: यह संस्कार जाति भेद के आधार पर किया जाता है। ब्राह्मण का 5 या 8 वर्षों में, क्षत्रिय का 9 या 11 वर्षों में और वैश्य का 8 या 12 वर्षों में होना चाहिए। यज्ञोपवीत बसंत में ब्राह्मण, ग्रीष्म में क्षत्रिय एवं शरद में वैश्य के लिए शुभ होता है। यह जाति भेद और कर्म के आधार पर किया गया है। इसके लिए हस्त, अश्विनी, पुष्य, तीनों उत्तरा, रोहिणी, अश्लेषा, स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, मूल, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, तीनों पूर्वा और आद्र्रा नक्षत्र शुभ हैं।
यह रविवार, सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार को किया जाता है। शुक्ल पक्ष की 2, 3, 5, 10, 11, 12 तिथियां एवं कृष्ण पक्ष में पंचमी तक की तिथियां भी शुभ होती हैं। लग्न से 6, 8, 12 स्थानों को छोड़ कर अन्य स्थानों में शुभ ग्रह होने चाहिए। विवाह के लिए मूल, अनुराधा, मृगशिरा, रेवती, हस्त, तीनों उत्तरा, स्वाति, मघा और रोहिणी नक्षत्र शुभ हं मासों में माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ और अग्रहायण शुभ हैं। विवाह के पहले कन्या वरण के लिए उत्तराषाढा़, स्वाति, श्रवण, तीनों पूर्वा, अनुराधा, धनिष्ठा और कृतिका एवं वर वरण के लिए रोहिणी, तीनों उत्तरा, कृतिका और तीनों पूर्वा शुभ हैं।
गंडांत मूल: तिथि गंडांत, लग्न गंडांत और नक्षत्र गंडांत संतान उत्पत्ति के लिए अशुभ माने गए हैं। गंडांत काल में विवाह आदि शुभ कार्य फल के बारे में कहा गया है कि स्त्री शोक देने वाली या मृत बच्चे को जन्म देने वाली हो सकती है, या फिर बांझ हो सकती है। मूल के बारे में कहा गया है कि ज्येष्ठा, रेवती, अश्लेषा के अंत के दो गंड एवं मूल, अश्विनी, मघा के आदि के दो गंड अशुभ हैं। ज्येष्ठा, मूल और अश्लेषा को बड़े मूल की संज्ञा दी गयी है, वहीं अश्विनी, रेवती और मघा को छोटे मूल की।
मूल की शांति: बड़े मूल और अभुक्त मूल की शांति 27 दिन में उसी नक्षत्र में की जाती है। इसका शांति पाठ उस पल आरंभ करना चाहिए जब चंद्रमा शांति के दिन उसी अंश पर आए जिस पर जन्म के समय था। अभुक्त मूल ज्येष्ठा और मूल में होता है। जहां मूल का वास होता है, वहीं उसका अशुभ फल होता है। जब पृथ्वी में वास हो तब यहां दोष होता है, अन्यथा नहीं। पृथ्वी पर मूल का वास श्रावण, कार्तिक, चैत्र एवं पौष मासों में होता है।
- पंचक भी शुभ कामों के लिए नहीं होते हैं। जब चंद्रमा कुंभ राशि से मीन तक होता है, तो पंचक कहा जाता है। धनिष्ठा के द्वितीय चरण से रेवती तक के पांच नक्षत्र पंचक कहे जाते हैं। इसे इतना अशुभ माना जाता है कि स्त्री को केश धोने की भी मनाही होती है।