प्राचीन ग्रंथों में नक्षत्र ज्ञान को ही ज्योतिष शास्त्र कहा गया है फलित ज्योतिष की सूक्ष्मता तक पहुंचने के लिए नक्षत्रों का ज्ञान होना आवश्यक है। जीव जिस नक्षत्र में जन्म लेता है उसमें उसी नक्षत्र के तत्वों की प्रधानता होती है। जिस तरह भचक्र को 12 भागों में बांट कर प्रत्येक भाग को राशि कहा गया है, ठीक उसी तरह जब भचक्र को 27 भागों में बांटा गया तो प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहा गया। नक्षत्र राशि से भिन्न नहीं माना गया बल्कि यह राशि का ही एक मान है। राशि का प्रत्येक भाग 30 अंशों का होता है और नक्षत्र का प्रत्येक भाग 13°20श् अंशों का होता है।
एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। फल कथन की गहराईयों तक पहुंचने के लिए हमारे महर्षियों ने राशि को आगे विभक्त कर नक्षत्र को समझाना उचित समझा। इन 27 नक्षत्रों के नाम व क्रम इस प्रकार है:
1. अश्विनी,
2. भरणी,
3. कृत्तिका,
4. रोहिणी,
5. मृगशिरा,
6. आद्र्रा,
7. पुनर्वसु,
8. पुष्य,
9. आश्लेषा,
10. मघा,
11. पू.फाल्गुनी,
12. उ.फाल्गुनी,
13. हस्त,
14. चित्रा,
15. स्वाती,
16. विशाखा,
17. अनुराधा,
18. ज्येष्ठा,
19. मूल,
20. पूर्वाषाढ़ा,
21. उत्तराषाढ़ा,
22. श्रावण,
23. धनिष्ठा,
24. शतभिषा,
25. पू. भाद्रपद,
26. उ. भाद्रपद,
27. रेवती जन्म कुंडली विश्लेषण और फल कथन में इन्हीं 27 नक्षत्रों का ही प्रयोग किया जाता है लेकिन शुभाशुभ मुहूर्तों को निर्धारित कर्म में 28 नक्षत्रों को लिया जाता है।
28वां नक्षत्र अभिजित है उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के चतुर्थ चरण की 53 कला 20 विकला तक रहता है। दूसरे शब्दों में मकर राशि के 6 अंशों 40 कला और 20 विकला तक रहता है। नामकरण, विवाह शादी आदि मुहूर्तों में यह नक्षत्र अति सहायक होता है। राशि की तरह 27 नक्षत्रों के भी स्वामी ग्रह होते हैं जो इस प्रकार है अश्वनी, मघा और मूल नक्षत्रों के स्वामी केतु है। भरणी, पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा का शुक्र, कृत्तिका, उत्तरा फाल्गुनी और उत्तराषाढ़ा का सूर्य, रोहिणी, हस्त और श्रवण का चंद्र, मृगशिरा, चित्रा और धनिष्ठा का मंगल, आद्र्रा, स्वाती और शतभिषा का राहु, पुनर्वसु, विशाखा और पूर्वा भाद्रपद का गुरु, पुष्य, अनुराधा और उत्तरा भाद्रपद का शनि और आश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती का बुध स्वामी ग्रह होता है। इन सभी 27 नक्षत्रों को आगे फिर चार चरणों में विभक्त किया गया है जिससे पूर्ण भचक्र के 108 भाग हो गए। इसलिए लगभग सभी धर्मों में 108 मनकों की माला जप के लिए बनाई जाती है।
एक माला का जप ब्रह्मांड का एक चक्र लगाने के बराबर माना गया है। जिस तरह नक्षत्रों के स्वामी ग्रह निर्धारित किए गए हैं उसी तरह नक्षत्र के प्रत्येक चरण का भी स्वामी ग्रह निर्धारित किया गया है। जो इस प्रकार है: 1 से 12 तक के चरणों के स्वामी क्रमशः मंगल, शुक्र, बुध, चंद्र, सूर्य, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, शनि और गुरु है। इस प्रकार इसी क्रम से 13 से 24, 25 से 36, 37 से 48, 49 से 60, 61 से 72, 73 से 84, 85 से 96, 97 से 108 चरणों के स्वामी ग्रह है। इन्हीं नक्षत्रों के स्वामी ग्रह और नक्षत्र चरणों के स्वामी ग्रह से ही फल कथन की गहराईयों को जाना जाता है। प्रत्येक ग्रह जो खगोल में नजर आता है किसी न किसी राशि, नक्षत्र और नक्षत्र चरण पर ही होता है। जन्म समय जातक की कुंडली में कौन सा ग्रह किस राशि नक्षत्र, नक्षत्र चरण पर होता है उसी पर जातक का पूर्ण जीवन आधारित होता है। जातक का जन्म नक्षत्र जातक की कुंडली में चंद्र की स्थिति अनुसार माना गया है।
चंद्र क्योंकि पृथ्वी के सबसे निकट है इसलिए चंद्र का प्रभाव जातक पर अधिक माना गया है। इसलिए चंद्र जिस नक्षत्र या नक्षत्र चरण पर स्थित रहता है वही जातक का जन्म नक्षत्र चरण माना जाता है। जातक के जन्म नक्षत्र के आधार पर ही जातक का नामकरण किया जाता है। चंद्र नक्षत्र के आधार पर ही विंशोत्तरी दशा निकाली जाती है। नक्षत्र का संबंध चंद्र से तो विशेष रूप से होता ही है लेकिन इसके अतिरिक्त प्रत्येक ग्रह और भाव का भी नक्षत्रों से संबंध होता है। हर ग्रह किसी न किसी नक्षत्र चरण में होता ही है। इसलिए ग्रह नक्षत्र के अनुसार ही अपना प्रभाव जातक के जीवन पर डालते हैं। इसी तरह लग्न अर्थात प्रथम भाव से लेकर द्वादश भाव तक। सभी भाव किसी न किसी नक्षत्र और नक्षत्र चरण पर ही उदित होते हैं उसी नक्षत्र अनुसार ही जातक को उन भावों के फल प्राप्त होते हैं। जातक के जीवन के जिस पहलु को जानना हो उसका संबंध जिस भाव से हो, सर्वप्रथम उसे जान लेना आवश्यक है। प्रत्येक भाव में जो नक्षत्र जन्म सम उदित होता है। जातक को उस भाव का फल उस नक्षत्र के अनुसार ही मिलता है। फिर उस भाव में बैठे ग्रह का फल भी उसी के अनुसार प्राप्त होता है। यदि ग्रह नक्षत्र, भाव नक्षत्र एक ही हो तो फल अति उत्तम होता है, भिन्न होने पर फल में न्यूनता आ जाती है। इसीतरह यदि एक या एक से अधिक ग्रह एक ही भाव में एक ही नक्षत्र पर बैठे हों तो जातक को उस भाव का उत्तर फल प्राप्त होता है। इसमें भी यह देखना आवश्यक है कि भाव में स्थित ग्रह शुभ कितने हैं और अशुभ कितने क्योंकि नक्षत्र के अनुसार ग्रहों की शुभाशुभता बदल जाती है। यदि शुभ ग्रहों का पलड़ा भारी होगा तो फल अति उत्तम होगा।
उदाहरण के तौर पर मान लो किसी जातक के व्यवसाय को जानना है व्यवसाय का संबंध दशम भाव से होता है। हम भाव में जो नक्षत्र जन्म के समय उदित होता है जातक का व्यवसाय उस नक्षत्र और चरण के स्वामियों पर निर्भर करता है। यदि दशम भाव में उदित नक्षत्र व नक्षत्र चरण स्वामियों का संबंध लग्न में उदित नक्षत्र और नक्षत्र स्वामी से मैत्री संबंध हो, तो जातक व्यवसाय में उच्च स्थान प्राप्त करेगा अन्यथा न्यून स्थान। इसके अतिरिक्त भाव में बैठे ग्रह, ग्रह के नक्षत्र एवं नक्षत्र चरण के स्वामियों का संबंध भी मैत्री होना चाहिए। यदि कोई ग्रह दशम भाव में स्थित नहीं है तो दशम भाव पर पड़ने वाली ग्रहों की दृष्टि का मूल्यांकन करना चाहिए। यदि दशम भाव में कोई ग्रह स्थित नहीं हो और न ही दशम भाव पर किसी ग्रह की दृष्टि हो तो व्यवसाय दशम भाव में उदित राशि नक्षत्र व नक्षत्र चरण के स्वामियों के अनुसार ही होगा। जैसे मान लो किसी की कुंडली में दशम भाव पर कुंभ राशि राहु नक्षत्र और शनि का चरण है तो जातक को व्यवसाय में विशेष सफलता प्राप्त होगी। क्योंकि राशि स्वामी शनि नक्षत्र स्वामी राहु, चरण स्वामी शनि तीनों में आपसी मैत्री संबंध है। इसी तरह से किसी भी भाव से संबंधी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। दो जुड़वा बच्चों में इसी कारण अंतर होता है। क्योंकि भावों के नक्षत्र चरण बदल जाते हैं। जैसे मान लें कि जातक जन्म कन्या राशि के 15 अंशों पर हुआ। 15 अंश पर हस्त नक्षत्र का दूसरा चरण होता है।
हस्त नक्षत्र कन्या राशि के 10 अंशों से शुरू होकर उसके 23 अंश 20 कला तक रहता है। हस्त नक्षत्र के चारों चरणों के स्वामी ग्रह क्रमशः मंगल, शुक्र, बुध एवं चंद्र अर्थात हस्त नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्मे जातक पर राशि स्वामी बुध और नक्षत्र स्वामी चंद्र और चरण स्वामी मंगल का द्वितीय चरण में जन्मे जातक पर राशि स्वामी बुध नक्षत्र स्वामी चंद्र और चरण स्वामी शुक्र का, इसी तरह तीसरे चरण में बुध चंद्र और बुध, चतुर्थ में बुध चंद्र, चंद्र का समावेश प्रभाव रहेगा। जिससे प्रत्येक चरण पर जन्में जातकों के स्वभाव में अंतर बना रहेगा यह अंतर चरण स्वामी के भेद के कारण होता है। ज्योतिष के पांच अंगों में से एक अंग नक्षत्र का फल कथन के अतिरिक्त नक्षत्र वर-वधू मिलान में भी विशेष रूप से सहायक होता है। अष्टकूट मिलान में तारा, योनि, गण और नाड़ी मिलान नक्षत्र पर ही आधारित होती है। इनके कुल अंक 21 होते हैं। जबकि अष्टकूट 36 अंकों का होता है। वैसे तो कुंडली मिलान में प्रत्येक कूट अपना विशेष महत्व रखता है। लेकिन योनि, गण और नाड़ी बहुत ही महत्वपूूर्ण कूट होते हैं। जिनका मिलान अति आवश्यक है। यह मिलान नक्षत्र पर ही आधारित है। गंडमूल नक्षत्रों का भी जनम समय विशेष विचार किया जाता है।
विद्वानों का मानना है कि गंडमूल नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातक अपने माता-पिता के लिए कष्टकारी होते हैं। ये नक्षत्र छह है जो अश्विनी, मघा, मूल, आश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती नामों से जाने जाते हें। इन नक्षत्रों का फल चरणानुसार एवं जन्म समयानुसार भिन्न-भिन्न होता है। जैसे गंडमूल नक्षत्र का जातक यदि दिन में जन्मा हो तो पिता के लिए, रात्रि में जन्मा माता के लिए, प्रातःकाल या सायंकाल में जन्मा हो तो अपने लिए अनिष्टकारी होता है। बड़े होकर गंडमूल में जन्में भाग्यशाली, उच्च पदों पर कार्यरत प्रतिष्ठित एवं धनवान होते देख गए हैं। मुहूर्तों में भी नक्षत्रों का विशेष स्थान है लगभग सभी मुहूर्त नक्षत्रों पर ही आधारित है। वैसे तो ज्योतिष के पांचों अंगों से मुहूर्त निकाले जाते हैं लेकिन पांचों में से नक्षत्र का स्थान सर्वोत्तम है। अभिजित नक्षत्र या अभिजित मुहूर्त में सभी कार्य किए जा सकते हैं यदि कोई और मुहूर्त न बन रहा हो।